गीता 2:27: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - '<td> {{गीता अध्याय}} </td>' to '<td> {{गीता अध्याय}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>')
 
No edit summary
 
(3 intermediate revisions by 2 users not shown)
Line 1: Line 1:
<table class="gita" width="100%" align="left">
<table class="gita" width="100%" align="left">
<tr>
<tr>
Line 9: Line 8:
'''प्रसंग-'''
'''प्रसंग-'''
----
----
पूर्व श्लोको द्वारा जो आत्मा को नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरने वाला मानते हैं, उन दोनों के मत से ही आत्मा के लिये शोक करना नहीं बनता, यह बात सिद्ध की गयी । अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता-
पूर्व [[श्लोक|श्लोकों]] द्वारा जो [[आत्मा]] को नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरने वाला मानते हैं, उन दोनों के मत से ही आत्मा के लिये शोक करना नहीं बनता, यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता-
----
----
<div align="center">
<div align="center">
Line 23: Line 22:
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
----
----
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है । इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।।27।।  
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।।27।।  


| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
Line 58: Line 57:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{महाभारत}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{गीता2}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{गीता2}}
{{महाभारत}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>

Latest revision as of 07:05, 4 January 2013

गीता अध्याय-2 श्लोक-27 / Gita Chapter-2 Verse-27

प्रसंग-


पूर्व श्लोकों द्वारा जो आत्मा को नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरने वाला मानते हैं, उन दोनों के मत से ही आत्मा के लिये शोक करना नहीं बनता, यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता-


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।27।।




क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।।27।।


For in that case death is certain for the born, and rebirth is inevitable for the dead. You should not, therefore, grieve over the inevitable.(27)


हि = क्योंकि (ऐसा होनेसे तो) ; जातस्य = जन्मनेवालेकी ; ध्रुव: = निश्र्चित ; मृत्यु: = मृत्यु ; च = और ; मृतस्य = मरनेवालेका ; ध्रुवम् = निश्र्चित ; जन्म = जन्म (होना सिद्ध हुआ) ; तस्मात् = इससे (भी) ; त्वम् = तूं (इस) ; अपरिहार्ये = बिना उपायवाले ; अर्थे = विषयमें ; शोचितुम् = शोक करनेको ; न अर्हसि = योग्य नहीं है



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख