गीता 13:12: Difference between revisions

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Revision as of 12:43, 21 March 2010

गीता अध्याय-13 श्लोक-12 / Gita Chapter-13 Verse-12

प्रसंग-


इस प्रकार ज्ञान के साधनों का 'ज्ञान' के नाम से वर्णन सुनने पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि इन साधनों द्वारा प्राप्त 'ज्ञान' से जानने योग्य वस्तु क्या है और उसे जान लेने से क्या होता है ? उसका उत्तर देने के लिये भगवन् अब जानने के योग्य वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके जानने का फल 'अमृतत्व की प्राप्ति' बतलाकर छ: श्लोकों में जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं –


ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्रा न सत्तन्नासदुच्यते ।।12।।



जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा । वह अनादिवाला परमब्रह्रा न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही ।।12।।

I shall speak to you at lengh about that which ought to be known, and knowing which one attains supreme bliss. That supreme brahma, who is the lord of beginning less entities, is said to be neither sat(being) nor asat (non-being). (12)


यत् = जो ; ज्ञेयम् = जानने के योग्य है ; च = तथा ; अमृतम् = परमानन्द को ; अश्नुते = प्राप्त होता है ; तत् = उसको ; प्रवक्ष्यमि = अच्छी प्रकार कहूंगा ; तत् = वह ; अनादिमत् = आदिरहित ; परम् = परम ; यत् = जिसकी ; ज्ञात्वा = जानकर (मनुष्य) ; ब्रह्म = ब्रह्म (अकथनीय होने से ) ; न = न ; सत् = सत् (कहा जाता हैऔर ) ; असत् = असत् ही ; उच्यते = कहा जाता है ;



अध्याय तेरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-13

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)