गीता 5:27-28: Difference between revisions

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बाहर के विषय- भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है ।।27-28।।  
बाहर के विषय- भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी [[इन्द्रियाँ]], मन और बुद्धि जीती हुई हैं- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है ।।27-28।।  


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Revision as of 13:53, 4 January 2013

गीता अध्याय-5 श्लोक-27-28 / Gita Chapter-5 Verse-27-28

प्रसंग-


अर्जुन[1] के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने कर्मयोग और सांख्ययोग के स्वरूप का प्रतिपादन करके दोनों साधनों द्वारा परमात्मा की प्राप्ति और सिद्ध पुरुषों के लक्षण बतलाये। फिर दोनों निष्ठाओं के लिये उपयोगी होने से ध्यान योग भी संक्षेप में वर्णन किया। अब जो मनुष्य इस प्रकार मन, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके कर्मयोग, सांख्ययोग या ध्यानयोग का साधन करने में अपने को समर्थ नहीं समझता हो, ऐसे साधक के लिये सुगमता से परम पद की प्राप्ति कराने वाले भक्ति योग का संक्षेप में वर्णन करते हैं-


स्पर्शान्कृत्वा वहिर्वाह्रांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: ।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ।।28।।



बाहर के विषय- भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है ।।27-28।।

Shutting out all thoughts of external enjoyments, with the gaze fixed on the space between the eye-brows, having regulated the prana outgoing and the apana ingoing breaths flowing within the nostrils; he who has brought his senses, mind and intellect under control,- such a contemplative soul intent on liberation and free from desire, fear and anger, is ever liberated. (27,28)


बाह्मान् = बाहर के; स्पर्शान् = विषय भोगों को (न चिन्तन करता हुआ); बहि: = बाहर; एव = ही; कृत्वा = त्यागकर; च = और; चक्षु: = नेत्रों की दृष्टि को; भ्रुवों: = भृकुटी के; अन्तरे = बीच में; नासाभ्यन्तर चारिणौं = नासिका में विचरनवाले; प्राणापानौ = प्राण और अपना वायु को; समौ = सम; कृत्वा = करके यतेन्द्रिय मनोबुद्वि: = जीती हुई हैं इन्द्रियां मन और बुद्धि जिसकी ऐसा: य: = जों; मोक्षपरायण:मुनि: = मोक्षपरायण;विगतेच्छा = इच्छा, भय भयक्रोध: = इच्छा, भय और क्रोध से रहित है।



अध्याय पाँच श्लोक संख्या
Verses- Chapter-5

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8, 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 ,28 | 29

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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