गीता 16:2: Difference between revisions

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मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं को अभाव, ।।2।।  
मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं को अभाव, ।।2।।  


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अंहिसा = मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना (तथा) ; सत्यम् = यथार्थ और प्रिय भाषण ; अक्रोध: = अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना ; त्याग: = कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग (एवं) ; शान्ति: = अन्त:करण की उपरामता अर्थात् चित्तकी चन्चलता का अभाव (और) ; अपैशुनम् = किसी की भी निन्दादि न करना (तथा) ; भूतेषु = सब भूतप्राणियों में ; दया = हेतुरहित दया ; अलोलुप्त्वम् = इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना (और) ; मार्दवम् = कोमलता (तथा) ; ही: = लोक और शास्त्र से विरूद्ध आचरण में लज्जा (और) ; अचापलम् = व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ;
अंहिसा = मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना (तथा) ; सत्यम् = यथार्थ और प्रिय भाषण ; अक्रोध: = अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना ; त्याग: = कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग (एवं) ; शान्ति: = अन्त:करण की उपरामता अर्थात् चित्तकी चन्चलता का अभाव (और) ; अपैशुनम् = किसी की भी निन्दादि न करना (तथा) ; भूतेषु = सब भूतप्राणियों में ; दया = हेतुरहित दया ; अलोलुप्त्वम् = इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना (और) ; मार्दवम् = कोमलता (तथा) ; ही: = लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा (और) ; अचापलम् = व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ;
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Revision as of 14:26, 20 May 2010

गीता अध्याय-16 श्लोक-2 / Gita Chapter-16 Verse-2

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ।।2।।


मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं को अभाव, ।।2।।

Non-violence in thought, word and deed, truthfulness and geniality of speech, absence of anger even on provocation, disclaiming doership in respect of actions, quietude or composure of mind, abstaining from malicious gossip compassion towards all creatures, absence of attachment to the objects of senses even during their contact with the senses, mildness, a sense of shame in transgressing against the scriptures or usage, and abstaining from frivolous pursuits; (2)


अंहिसा = मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना (तथा) ; सत्यम् = यथार्थ और प्रिय भाषण ; अक्रोध: = अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना ; त्याग: = कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग (एवं) ; शान्ति: = अन्त:करण की उपरामता अर्थात् चित्तकी चन्चलता का अभाव (और) ; अपैशुनम् = किसी की भी निन्दादि न करना (तथा) ; भूतेषु = सब भूतप्राणियों में ; दया = हेतुरहित दया ; अलोलुप्त्वम् = इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना (और) ; मार्दवम् = कोमलता (तथा) ; ही: = लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा (और) ; अचापलम् = व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ;



अध्याय सोलह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-16

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15, 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)