दारा शिकोह: Difference between revisions

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*शाहजहाँ अपने पुत्रों में सबसे ज़्यादा इसी को चाहता था और उसे आमतौर पर अपने साथ ही दरबार में रखता था।  
*शाहजहाँ अपने पुत्रों में सबसे ज़्यादा इसी को चाहता था और उसे आमतौर पर अपने साथ ही दरबार में रखता था।  
*दारा बहादुर इन्सान था और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह [[अकबर]] के गुण विरासत में मिले थे।  
*दारा बहादुर इन्सान था और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह [[अकबर]] के गुण विरासत में मिले थे।  
*वह सूफ़ीवाद की ओर उन्मुख था और इस्लाम के हनफ़ी पंथ का अनुयायी था।  
*वह सूफ़ीवाद की ओर उन्मुख था और [[इस्लाम]] के हनफ़ी पंथ का अनुयायी था।  
*वह सभी धर्म मजहबों का आदर करता था और हिन्दु धर्म दर्शन व ईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया।  
*वह सभी धर्म मजहबों का आदर करता था और हिन्दु धर्म दर्शन व ईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया।  
*इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई [[औरंगज़ेब]] ने खूब फ़ायदा उठाया।  
*इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई [[औरंगज़ेब]] ने खूब फ़ायदा उठाया।  
*दारा ने 1653 ई. में कंधार की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था। यद्यपि वह इस अभियान में विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा।  
*दारा ने 1653 ई. में [[कंधार]] की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था। यद्यपि वह इस अभियान में विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा।  
*1657 ई. में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो वह उसके पास में मौजूद था।  
*1657 ई. में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो वह उसके पास में मौजूद था।  
*दारा की उम्र इस समय 43 वर्ष की थी और वह पिता के [[तख़्त-ए-ताऊस]] को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, ख़ासकर औरंगज़ेब ने उसके इस दावे का विरोध किया। *फलस्वरूप दारा को उत्तराधिकार के लिए अपने इन भाइयों के साथ में युद्ध करना पड़ा (1657-58 ई.)। लेकिन शाहजहाँ के समर्थन के बावजूद दारा की फ़ौज 15 अप्रैल 1658 ई. को धर्मट के युद्ध में औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त फ़ौज से परास्त हो गई।  
*दारा की उम्र इस समय 43 वर्ष की थी और वह पिता के [[तख़्त-ए-ताऊस]] को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, ख़ासकर औरंगज़ेब ने उसके इस दावे का विरोध किया।  
*इसके बाद दारा अपने बाग़ी भाइयों को दबाने के लिए दुबारा खुद अपने नेतृत्व में शाही फ़ौजों के साथ निकला, किन्तु इस बार भी उसे 29 मई 1658 ई. को सामूगढ़ के युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस बार दारा के लिये [[आगरा]] वापस लौटना सम्भव नहीं था। वह शरणार्थी बन गया और [[पंजाब]], कच्छ, [[गुजरात]] एवं राजपूताना में भटकने के बाद तीसरी बार फिर एक बड़ी सेना तैयार करने में सफल रहा। *दौराई में अप्रैल 1659 ई. में औरंगज़ेब से उसकी तीसरी और आख़िरी मुठभेड़ हुई। इस बार भी वह फिर से हारा। दारा फिर शरणार्थी बनकर अपनी जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिन्ध गया। यहाँ पर उसकी प्यारी बेग़म नादिरा का इंतक़ाल हो गया।  
*फलस्वरूप दारा को उत्तराधिकार के लिए अपने इन भाइयों के साथ में युद्ध करना पड़ा (1657-58 ई.)। लेकिन शाहजहाँ के समर्थन के बावजूद दारा की फ़ौज 15 अप्रैल 1658 ई. को धर्मट के युद्ध में औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त फ़ौज से परास्त हो गई।  
*इसके बाद दारा अपने बाग़ी भाइयों को दबाने के लिए दुबारा खुद अपने नेतृत्व में शाही फ़ौजों के साथ निकला, किन्तु इस बार भी उसे 29 मई 1658 ई. को सामूगढ़ के युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस बार दारा के लिये [[आगरा]] वापस लौटना सम्भव नहीं था। वह शरणार्थी बन गया और [[पंजाब]], कच्छ, [[गुजरात]] एवं राजपूताना में भटकने के बाद तीसरी बार फिर एक बड़ी सेना तैयार करने में सफल रहा।  
*दौराई में अप्रैल 1659 ई. में औरंगज़ेब से उसकी तीसरी और आख़िरी मुठभेड़ हुई। इस बार भी वह फिर से हारा। दारा फिर शरणार्थी बनकर अपनी जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिन्ध गया। यहाँ पर उसकी प्यारी बेग़म नादिरा का इंतक़ाल हो गया।  
*दारा ने दादर के अफ़ग़ान सरदार जीवनख़ान का आतिथ्य स्वीकार किया। किन्तु मलिक जीवनख़ान गद्दार साबित हुआ, और उसने दारा को औरंगज़ेब की फ़ौज के हवाले कर दिया, जो इस बीच बराबर उसका पीछा कर रही थी। दारा को बन्दी बनाकर [[दिल्ली]] लाया गया, जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उसे भिख़ारी की पोशाक़ में एक छोटी सी हथिनी पर बैठाकर सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद मुल्लाओं के सामने उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया गया।  
*दारा ने दादर के अफ़ग़ान सरदार जीवनख़ान का आतिथ्य स्वीकार किया। किन्तु मलिक जीवनख़ान गद्दार साबित हुआ, और उसने दारा को औरंगज़ेब की फ़ौज के हवाले कर दिया, जो इस बीच बराबर उसका पीछा कर रही थी। दारा को बन्दी बनाकर [[दिल्ली]] लाया गया, जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उसे भिख़ारी की पोशाक़ में एक छोटी सी हथिनी पर बैठाकर सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद मुल्लाओं के सामने उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया गया।  
*धर्मद्रोह के अभियोग में मुल्लाओं ने उसे मौत की सजा दी।  
*धर्मद्रोह के अभियोग में मुल्लाओं ने उसे मौत की सजा दी।  

Revision as of 17:59, 23 October 2010

  • मुग़ल बादशाह शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था।
  • मुमताज़ बेग़ल उसकी माता थीं।
  • आरम्भ में दारा शिकोह पंजाब का सूबेदार बनाया गया, जिसका शासन वह राजधानी से अपने प्रतिनिधियों के ज़रिये चलाता था।
  • शाहजहाँ अपने पुत्रों में सबसे ज़्यादा इसी को चाहता था और उसे आमतौर पर अपने साथ ही दरबार में रखता था।
  • दारा बहादुर इन्सान था और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह अकबर के गुण विरासत में मिले थे।
  • वह सूफ़ीवाद की ओर उन्मुख था और इस्लाम के हनफ़ी पंथ का अनुयायी था।
  • वह सभी धर्म मजहबों का आदर करता था और हिन्दु धर्म दर्शन व ईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया।
  • इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई औरंगज़ेब ने खूब फ़ायदा उठाया।
  • दारा ने 1653 ई. में कंधार की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था। यद्यपि वह इस अभियान में विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा।
  • 1657 ई. में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो वह उसके पास में मौजूद था।
  • दारा की उम्र इस समय 43 वर्ष की थी और वह पिता के तख़्त-ए-ताऊस को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, ख़ासकर औरंगज़ेब ने उसके इस दावे का विरोध किया।
  • फलस्वरूप दारा को उत्तराधिकार के लिए अपने इन भाइयों के साथ में युद्ध करना पड़ा (1657-58 ई.)। लेकिन शाहजहाँ के समर्थन के बावजूद दारा की फ़ौज 15 अप्रैल 1658 ई. को धर्मट के युद्ध में औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त फ़ौज से परास्त हो गई।
  • इसके बाद दारा अपने बाग़ी भाइयों को दबाने के लिए दुबारा खुद अपने नेतृत्व में शाही फ़ौजों के साथ निकला, किन्तु इस बार भी उसे 29 मई 1658 ई. को सामूगढ़ के युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस बार दारा के लिये आगरा वापस लौटना सम्भव नहीं था। वह शरणार्थी बन गया और पंजाब, कच्छ, गुजरात एवं राजपूताना में भटकने के बाद तीसरी बार फिर एक बड़ी सेना तैयार करने में सफल रहा।
  • दौराई में अप्रैल 1659 ई. में औरंगज़ेब से उसकी तीसरी और आख़िरी मुठभेड़ हुई। इस बार भी वह फिर से हारा। दारा फिर शरणार्थी बनकर अपनी जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिन्ध गया। यहाँ पर उसकी प्यारी बेग़म नादिरा का इंतक़ाल हो गया।
  • दारा ने दादर के अफ़ग़ान सरदार जीवनख़ान का आतिथ्य स्वीकार किया। किन्तु मलिक जीवनख़ान गद्दार साबित हुआ, और उसने दारा को औरंगज़ेब की फ़ौज के हवाले कर दिया, जो इस बीच बराबर उसका पीछा कर रही थी। दारा को बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया, जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उसे भिख़ारी की पोशाक़ में एक छोटी सी हथिनी पर बैठाकर सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद मुल्लाओं के सामने उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया गया।
  • धर्मद्रोह के अभियोग में मुल्लाओं ने उसे मौत की सजा दी।
  • 30 अगस्त, 1659 ई. को इस सज़ा के तहत दारा का सिर कट लिया गया। उसका बड़ा पुत्र सुलेमान पहले से ही औरंगज़ेब का बंदी था।
  • 1662 ई. में औरंगज़ेब ने जेल में उसकी भी हत्या कर दी। दारा के दूसरे पुत्र से सेपरहरशिकोह को बख़्श दिया गया, जिसकी शादी बाद में औरंगज़ेब की तीसरी लड़की से हुई।


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