जसवंत सिंह (राजा): Difference between revisions

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अलंकार निपुणता की इनकी पद्धति का परिचय कराने के लिए 'भाषा भूषण' के उदाहरण इस प्रकार हैं -  
अलंकार निपुणता की इनकी पद्धति का परिचय कराने के लिए 'भाषा भूषण' के उदाहरण इस प्रकार हैं -  
<poem>अत्युक्ति, अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अतिसय रूप।
<blockquote><poem>अत्युक्ति, अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अतिसय रूप।
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप
पर्यस्तापह्नुति, पर्यस्त जु गुन एक को और विषय आरोप।
पर्यस्तापह्नुति, पर्यस्त जु गुन एक को और विषय आरोप।
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त्वयि दातारि राजेंद्र याचका: कल्पशाखिन:।
त्वयि दातारि राजेंद्र याचका: कल्पशाखिन:।
पर्य्यास्तापह्नुतिर्यत्रा धर्ममात्रां निषिधयते।
पर्य्यास्तापह्नुतिर्यत्रा धर्ममात्रां निषिधयते।
नायं सुधांशु: किं तर्हि सुधांशु: प्रेयसीमुखम्</poem>
नायं सुधांशु: किं तर्हि सुधांशु: प्रेयसीमुखम्</poem></blockquote>
==टीकाएँ==
==टीकाएँ==
भाषा भूषण पर बाद में तीन टीकाएँ लिखी गईं -   
भाषा भूषण पर बाद में तीन टीकाएँ लिखी गईं -   

Revision as of 07:48, 11 May 2011

महाराज जसवंत सिंह मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज थे जो अपने समय के सबसे प्रतापी हिंदू नरेश थे और जिनका भय औरंगज़ेब को बराबर बना रहता था।

परिचय

इनका जन्म संवत 1683 में हुआ। वे शाहजहाँ के समय में ही कई लड़ाइयों पर जा चुके थे। महाराज गजसिंह के ये दूसरे पुत्र थे और उनकी मृत्यु के उपरांत संवत 1695 में गद्दी पर बैठे। इनके बड़े भाई अमरसिंह अपने उद्धत स्वभाव के कारण पिता द्वारा अधिकारच्युत कर दिए गए थे।

विद्वान पुरुष

महाराज जसवंत सिंह बडे साहित्य के मर्मज्ञ और तत्वज्ञान संपन्न पुरुष थे। उनके समय में राज्य भर में विद्या की बड़ी चर्चा रही और अच्छे कवियों और विद्वानों का बराबर समागम होता रहा। महाराज ने स्वयं तो अनेक ग्रंथ लिखे ही, अनेक विद्वानों और कवियों से भी कितने ग्रंथ लिखवाए। औरंगज़ेब ने इन्हें कुछ दिनों के लिए गुजरात का सूबेदार बनाया था। वहाँ से शाइस्ता खाँ के साथ ये छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण भेजे गए थे। कहा जाता हैं कि चढ़ाई के समय इनके इशारे पर शाइस्ता खाँ की काफ़ी दुर्गति हुई। अंत में ये अफगानों से लड़ने के लिए काबुल भेजे गए जहाँ संवत 1745 में इनका परलोकवास हुआ।

साहित्य के प्रधान आचार्य

ये हिन्दी साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं और इनका 'भाषा भूषण' ग्रंथ अलंकारों पर एक बहुत ही प्रचलित पाठय ग्रंथ है। इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं। रीति काल में जितने लक्षण ग्रंथ लिखने वाले हुए, वे वास्तव में कवि थे और उन्होंने कविता करने के उद्देश्य से ही ग्रंथ लिखे थे, न कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से, किंतु महाराज जसवंत सिंह जी इस नियम के अपवाद थे। वह आचार्य की गरिमा से हिन्दी साहित्य में आए।

ग्रंथ भाषा भूषण

उन्होंने अपना 'भाषा भूषण' बिल्कुल 'चंद्रलोक' की छाया पर बनाया और उसी की संक्षिप्त प्रणाली का अनुसरण किया। जिस प्रकार चंद्रलोक में प्राय: एक ही श्लोक के भीतर लक्षण और उदाहरण दोनों का सन्निवेश है उसी प्रकार 'भाषा भूषण' में भी प्राय: एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण दोनों रखे गए हैं। इससे विद्यार्थियों को अलंकार कंठस्त करना रूचिकर हो गया और 'भाषा भूषण' हिन्दी काव्य रीति के अभ्यासियों के मध्य उसी प्रकार सर्वप्रिय हुआ जैसा कि संस्कृत के विद्यार्थियों के बीच चंद्रालोक। भाषाभूषण बहुत छोटा सा ग्रंथ है।

अन्य ग्रंथ

भाषा भूषण के अतिरिक्त जो और ग्रंथ इन्होंने लिखे है, वे तत्वज्ञान संबंधी हैं, जैसे - अपरोक्षसिध्दांत, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिध्दांतबोध, सिध्दांतसार, प्रबोधचंद्रोदय नाटक। ये सब ग्रंथ भी पद्य में ही हैं, जिससे इनकी पद्य रचना की पूरी निपुणता प्रकट होती है। किंतु साहित्य में ये आचार्य या शिक्षक के रूप में ही हमारे सामने आते हैं।

अलंकार निपुणता की इनकी पद्धति का परिचय कराने के लिए 'भाषा भूषण' के उदाहरण इस प्रकार हैं -

अत्युक्ति, अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अतिसय रूप।
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप
पर्यस्तापह्नुति, पर्यस्त जु गुन एक को और विषय आरोप।
होइ सुधाधर नाहिं यह वदन सुधाधर ओप
ये दोहे चंद्रालोक के इन श्लोकों की स्पष्ट छाया हैं,
अत्युक्तिरद्भुतातथ्य शौर्यौ दार्यादि वर्णनम्।
त्वयि दातारि राजेंद्र याचका: कल्पशाखिन:।
पर्य्यास्तापह्नुतिर्यत्रा धर्ममात्रां निषिधयते।
नायं सुधांशु: किं तर्हि सुधांशु: प्रेयसीमुखम्

टीकाएँ

भाषा भूषण पर बाद में तीन टीकाएँ लिखी गईं -

  1. 'अलंकार रत्नाकर' नाम की टीका जिसे बंशीधर ने संवत 1792 में बनाया,
  2. दूसरी टीका प्रताप साही की और
  3. तीसरी गुलाब कवि की 'भूषणचंद्रिका'।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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