गीता 6:4: Difference between revisions

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Revision as of 15:12, 21 March 2010

गीता अध्याय-6 श्लोक-4 / Gita Chapter-6 Verse-4

प्रसंग-


परमपद की प्राप्ति हेतु रूप योगारूढ अवस्था का वर्णन करके अब उसे प्राप्त करने के लिये उत्साहित करते हुए भगवान् मनुष्य का कर्तव्य बतलाते हैं-


यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ।।4।।



जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ कहा जाता है ।।4।।

attachment either for the objects of senses or for actions, and has renounced all thoughts of the world, he is said to have climbed to the heights of yoga. (4)


यदा = जिस काल में; न = न =(तो); इन्द्रियार्थेंषु = इन्द्रिया के भोगों मे; अनुषज्जते = आसक्त होता है (तथा ); न = न कर्मसु = कर्मों में; अनुषज्जते = आसक्त होता है; तदा = उस काल में; सर्वसंकल्प संन्यासी = सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष; योगारूढ़: = योगारूढ़; उच्चते =कहा जाता है;



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)