योगभ्रष्ट पुरुष की दुर्गति तो नहीं होती, फिर उसकी क्या गति होती है । यह जानने की इच्छा होने पर भगवान् कहते हैं-
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।40।।
श्रीभगवान् बोले-
हे पार्थ[1] ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही। क्योंकि हे प्यारे ! आत्मोद्वार के लिये अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।।40।।
Shri Bhagavan said:
Dear Arjuna, there is no fall for him either here or herafter. For none who strives for self-redemption (i.e., God-realization) ever meets with evil destiny. (40)
पार्थ = हे पार्थ ; तस्य = उस पुरुष को ; न = न तो ; इह = इस लोक में (और) ; न = न ; अमुत्र = परलोक में ; कल्याणकृत् = शुभ कर्म करने वाला अर्थात् भगवत्-अर्थ कर्म करने वाला ; एव = ही ; विनाश: = नाश ; विद्यते = होता है ; हि = क्योंकि ; तात = हे प्यारे ; कश्र्चित् = कोई भी ; दुर्गतिम् = दुर्गति को ; न = नहीं ; गच्छति = प्राप्त होता है ;