पंद्रहवें श्लोंक में आसुरी प्रकृति के दुष्कृती लोगों के भगवान् को न भजने की और सोलहवें से उन्नीसवें तक सुकृती पुरुषों के द्वारा भगवान् को भजने की बात कही गयी । अब भगवान् उनकी बात कहते हैं जो सुकृती होने पर भी कामना के वश अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अन्यान्य देवताओं की उपासना करते हैं-
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ।।19।।
बहुत जन्मों के अन्त में तत्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझ को जो भजता है , वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।।19।।
In the very last of all births the enlightened soul worships me, realizing that all this is God. Such a great soul is very rare.(19)
बहूनाम् = बहुत ; अन्ते = अन्त के जन्म में ; ज्ञानवान् = तत्त्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी ; सर्वम् = सब कुछ ; वासुदेव: = वासुदेव ही है ; जन्मनाम् = जन्मों के ; इति = इस प्रकार ; माम् = मेरे को ; प्रपद्यते = भजता है ; स: = वह ; महात्मा = महात्मा ; सुदुर्लभ: = अति दुर्लभ है