गीता 2:18

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 06:27, 4 January 2013 by रविन्द्र प्रसाद (talk | contribs)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

गीता अध्याय-2 श्लोक-18 / Gita Chapter-2 Verse-18

प्रसंग-


अगले श्लोकों में 'आत्मा को मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है', यह कहकर उसका समाधान करते हैं-


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।।18।।




इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन[1] ! तू युद्ध कर ।।18।।


All these bodies pertaining to the imperishable, indefinable and eternal soul are spoken of as perishable; therefore, Arjuna, fight. (18)


अनाशिन: = नाशरहित ; अप्रमेयस्य = अप्रमेय ; नित्यस्य = नित्यस्वरूप ; शरीरिण: = जीवात्माके ; इमे = यह ; देहा: = सब शरीर ; अन्तवन्त: = नाशवान् ; उक्ता: = कहे गये हैं ; तस्मात् = इसलिये ; भारत = हे भरतवंशी अर्जुन (तूं) ; युध्यस्व = युद्ध कर ;



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः