प्रसंग-
कर्मयोग की प्रशंसा करके अब उसका साधन बतलाते हैं-
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न ह्रासंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ।।2।।
हे अर्जुन[1] ! जिसको सन्न्यास ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान। क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता ।।2।।
Arjuna, you must know that what they call samnyasa is no other than yoga; for none become a yogi, who has not given up thoughts of the world. (2)
पाण्डव = हे अर्जुन: यम् = जिसको; सन्न्यासम् = सन्न्यास; इति = ऐसा; प्राहु: = कहते हैं; तम् = उसी को(तूं); योगम् =योग; विद्वि = ज्ञान; हि = क्योंकि; असंन्यस्त = संकल्पों को न त्यागने वाला; कश्वन = कोई भी पुरुष; भवति = योगी;
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