कौरवों का कपट

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खाण्डव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभयदान दे दिया था। इससे कृतज्ञ होकर मय दानव ने अर्जुन से कहा- “हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है। अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?” अर्जुन ने उत्तर दिया- “मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम श्रीकृष्ण की सेवा करो।” मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर श्रीकृष्ण ने उससे कहा- “हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे सभाभवन का निर्माण करो, जैसा कि इस पृथ्वी पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।” मयासुर ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने पाण्डवों को देवदत्त शंख, एक वज्र से भी कठोर रत्नजड़ित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया।

कुछ काल पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन किया। इस यज्ञ के आयोजन के पहले ही भीम द्वारा जरासंध का एवं यज्ञ के दौरान श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध हुआ। यज्ञ के समाप्त हो जाने के बाद भी कौरव दुर्योधन आदि अन्य भाइयों के साथ युधिष्ठिर के अतिथि बने रहे। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की, जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन के शिल्पकला को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे, जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान पर दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ, जिस कारण उसे कई बार पाण्डवों आदि का उपहास का पात्र बनना पड़ा। यहाँ तक कि उसका उपहास करते हुए द्रौपदी ने यह भी कह दिया कि "अन्धों के पुत्र अन्धे ही होते हैं।" दुर्योधन अपने उपहास से पहले से ही जला-भुना था, किन्तु द्रौपदी के कहे गये वचन उसे शूल से भी अधिक चुभन दे रहे थे।

हस्तिनापुर लौटते समय शकुनि ने दुर्योधन से कहा- “भाँजे! इन्द्रप्रस्थ के सभा भवन में तुम्हारा जो अपमान हुआ है, उससे मुझे अत्यन्त दुःख हुआ है। तुम यदि अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते हो तो अपने पिता धृतराष्ट्र से अनुमति लेकर युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा (जुआ खेलने) के लिये आमन्त्रित कर लो। युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा का प्रेमी है, अत: वह तुम्हारे निमन्त्रण पर अवश्य ही आयेगा और तुम तो जानते ही हो कि पासे के खेल में मुझ पर विजय पाने वाला त्रिलोक में भी कोई नहीं है। पासे के दाँव में हम पाण्डवों का सब कुछ जीतकर उन्हें पुनः दरिद्र बना देंगे।”

हस्तिनापुर पहुँच कर दुर्योधन सीधे अपने पिता धृतराष्ट्र के पास गया और उन्हें अपने अपमान के विषय में विस्तारपूर्वक बताकर अपनी तथा मामा शकुनि की योजना के विषय में भी बताया। उसने युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिये आमन्त्रित करने की अनुमति भी माँगी। थोड़ा-बहुत आनाकनी करने के पश्चात् धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को अपनी अनुमति दे दी। युधिष्ठिर को उनके भाइयों तथा द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर बुलवा लिया गया। अवसर पाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ द्यूत-क्रीड़ा का प्रस्ताव रखा, जिसे युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया। पासे का खेल आरम्भ हुआ। दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि पासे फेंकने लगे। युधिष्ठिर जो कुछ भी दाँव पर लगाते थे, उसे हार जाते थे। अपना समस्त राज्य तक हार जाने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी दाँव पर लगा दिया और शकुनि धूर्तता करके इस दाँव को भी जीत गया। यह देखकर भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर आदि ने इस जुए का बन्द कराने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहे। अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने आप को भी दाँव पर लगा दिया और शकुनि की धूर्तता से फिर हार गये।

राज-पाट तथा भाइयों सहित स्वयं को भी हार जाने पर युधिष्ठिर कान्तिहीन होकर उठने लगे तो शकुनि ने कहा- “युधिष्ठिर! अभी भी तुम अपना सब कुछ वापस जीत सकते हो। अभी द्रौपदी तुम्हारे पास दाँव में लगाने के लिये शेष है। यदि तुम द्रौपदी को दाँव में लगाकर जीत गये तो मैं तुम्हारा हारा हुआ सब कुछ तुम्हें लौटा दूँगा।” सभी तरह से निराश युधिष्ठिर ने अब द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया और हमेशा की तरह हार गये। अपनी इस विजय को देखकर दुर्योधन उन्मत्त हो उठा और विदुर से बोला- “द्रौपदी अब हमारी दासी है, आप उसे तत्काल यहाँ ले आइये।”


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