फल में विषमता की शंका का निराकरण करने के लिये सबकी एकता का प्रतिपादन करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं-
ब्रह्राणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।।27।।
क्योंकि उस अविनाशी पर ब्रह्मा[1] का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का आश्रय मैं हूँ इसलिए इनका मैं परम आश्रय हूँ ।।27।।
For, I am the ground of the imperishable Brahma, of immortality, of the eternal virtue and of unending immutable bliss. (27)
अव्ययस्य = अविनाशी ; ब्रह्मण: = परबह्मका ; च = और ; अमृतस्य = अमृत का ; च = तथा ; शाश्र्वतस्य = नित्य ; धर्मस्य = धर्म का ; च = और ; ऐकान्तकिस्य = अखण्ड एकरस ; सुखस्य = आनन्द का ; अहम् = मैं ; हि = हि ; प्रतिष्ठा = आश्रय हूं
↑सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, क्योंकि वे विश्व के आद्य स्रष्टा, प्रजापति, पितामह तथा हिरण्यगर्भ हैं।