गीता 5:8-9: Difference between revisions

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इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्परूप बतलाकर अब दसवें और ग्यारवें श्लोकों में कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते हैं-
इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्परूप बतलाकर अब दसवें और ग्यारवें [[श्लोक|श्लोकों]] में कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते हैं-
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तत्व को जानने वाला सांख्य योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर नि:सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ।।8-9।।  
तत्त्व को जानने वाला सांख्य योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी सब [[इन्द्रियाँ]] अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर नि:सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ।।8-9।।  


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तत्ववित् = तत्व को जानने वाला; युक्त: सांख्ययोगी तो; पश्चन् = देखता हुआ; श्रृण्वन् = सुनता हुआ; स्पृशन् = स्पर्श करता हुआ; जिघ्रन् = सूंघता हुआ; अश्नन् = भोजन करता हुआ; गच्छत् = गमन करता हुआ; स्वपन् = सोता हुआ; श्वसन् = श्वास लेता हुआ; प्रलपन् = बोलता हुआ; विसृजन् = त्यागता हुआ; गृहृन् = ग्रहण करता हुआ (तथा ); उन्मिषन् = आंखों को खोलता (और);निमिषन् = मीचता हुआ; इन्द्रियार्थेंषु = अपने अपने अर्थों में; वर्तन्ते =बर्त रही हैं; धारयन् = समझता हुआ; एवं = नि:सन्देह; इति = ऐसे; मन्येत = माने कि(मैं); किंचित् =कुछ भी; करोमि = करता हूं  
तत्ववित् = तत्त्व को जानने वाला; युक्त: सांख्ययोगी तो; पश्चन् = देखता हुआ; श्रृण्वन् = सुनता हुआ; स्पृशन् = स्पर्श करता हुआ; जिघ्रन् = सूंघता हुआ; अश्नन् = भोजन करता हुआ; गच्छत् = गमन करता हुआ; स्वपन् = सोता हुआ; श्वसन् = श्वास लेता हुआ; प्रलपन् = बोलता हुआ; विसृजन् = त्यागता हुआ; गृहृन् = ग्रहण करता हुआ (तथा ); उन्मिषन् = आंखों को खोलता (और);निमिषन् = मीचता हुआ; इन्द्रियार्थेंषु = अपने अपने अर्थों में; वर्तन्ते =बर्त रही हैं; धारयन् = समझता हुआ; एवं = नि:सन्देह; इति = ऐसे; मन्येत = माने कि(मैं); किंचित् =कुछ भी; करोमि = करता हूं  
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Latest revision as of 13:31, 4 January 2013

गीता अध्याय-5 श्लोक-8,9 / Gita Chapter-5 Verse-8,9

प्रसंग-


इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्परूप बतलाकर अब दसवें और ग्यारवें श्लोकों में कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते हैं-


नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ।।8।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषत्रिमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।।9।।



तत्त्व को जानने वाला सांख्य योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर नि:सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ।।8-9।।

The Sankhyayogi, however, who knows the reality of things, must believe, even though seeing, hearing, touching, smelling, eating or drinking, walking, sleeping, breathing, speaking, answering the calls of nature, grasping and opening or closing the eyes, that be does nothing, holding that it is the senses that are moving among their objects.(8,9)


तत्ववित् = तत्त्व को जानने वाला; युक्त: सांख्ययोगी तो; पश्चन् = देखता हुआ; श्रृण्वन् = सुनता हुआ; स्पृशन् = स्पर्श करता हुआ; जिघ्रन् = सूंघता हुआ; अश्नन् = भोजन करता हुआ; गच्छत् = गमन करता हुआ; स्वपन् = सोता हुआ; श्वसन् = श्वास लेता हुआ; प्रलपन् = बोलता हुआ; विसृजन् = त्यागता हुआ; गृहृन् = ग्रहण करता हुआ (तथा ); उन्मिषन् = आंखों को खोलता (और);निमिषन् = मीचता हुआ; इन्द्रियार्थेंषु = अपने अपने अर्थों में; वर्तन्ते =बर्त रही हैं; धारयन् = समझता हुआ; एवं = नि:सन्देह; इति = ऐसे; मन्येत = माने कि(मैं); किंचित् =कुछ भी; करोमि = करता हूं



अध्याय पाँच श्लोक संख्या
Verses- Chapter-5

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8, 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 ,28 | 29

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख