गीता 6:15: Difference between revisions

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ध्यान योग का प्रकार और फल बतलाया गया, अब [[ध्यान]] के लिये उपयोगी आहार, विहार और शयनादि के नियम किस प्रकार के होने चाहिए? यह जानने की आकांक्षा पर भगवान् उसे दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कहते हैं-
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वश में किये हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है ।।15।।  
वश में किये हुए मन वाला योगी इस प्रकार [[आत्मा]] को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है ।।15।।  


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Latest revision as of 06:01, 5 January 2013

गीता अध्याय-6 श्लोक-15 / Gita Chapter-6 Verse-15

प्रसंग-


ध्यान योग का प्रकार और फल बतलाया गया, अब ध्यान के लिये उपयोगी आहार, विहार और शयनादि के नियम किस प्रकार के होने चाहिए? यह जानने की आकांक्षा पर भगवान् उसे दो श्लोकों में कहते हैं-


युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस: ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।।15।।



वश में किये हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है ।।15।।

Thus constantly applying his mind to Me, the yogi of disciplined mind attains the everlasting peace, sonsisting of supreme bliss, which abides in Me. (15)


एवम् = इस प्रकार; आत्मानम् = आत्मा को; सदा =निरन्तर; युज्जन् = परमेश्वर के रूवरूप में) लगाता हुआ; नियतमानस: = स्वाधीन मन वाला; मत्संथाम् = मेरे में स्थिति रूप; निर्वाणपरमाम् = परमानन्द पराकाष्ठा वाली; शान्तिम् = शान्ति को; अधिगच्छति = प्राप्त होता है



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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