गीता 7:3: Difference between revisions
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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यहाँ तक भगवान् ने अपने समग्र स्वरूप के ज्ञान-विज्ञान कहने की प्रतिज्ञा और उसकी प्रशंसा की, अब ज्ञान-विज्ञान के प्रकरण का आरम्भ करते हुए पहले अपनी 'अपरा' और 'परा' प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं- | यहाँ तक भगवान् ने अपने समग्र स्वरूप के ज्ञान-[[विज्ञान]] कहने की प्रतिज्ञा और उसकी प्रशंसा की, अब ज्ञान-विज्ञान के प्रकरण का आरम्भ करते हुए पहले अपनी 'अपरा' और 'परा' प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं- | ||
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हज़ारों मनुष्यों में कोई एक मेरे प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है ।।3।। | |||
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सहस्त्रेषु = | सहस्त्रेषु = हज़ारों ; मनुष्याणाम् = मनुष्यों में ; कश्र्चित् = कोई ही मनुष्य; सिद्वये = मेरी प्राप्ति के लिये; यतति = यन्त्र करता है; यतताम् = उन यन्त्र करने वाले; सिद्वानाम् = योगियों में; अपि = भी; कश्वित् = कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ); माम= मेरे को; तत्वत्: = तत्त्व से; वेत्ति =जानता है अर्थात् यथार्थ मर्मसे जानता है। | ||
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<references/> | |||
==संबंधित लेख== | |||
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Latest revision as of 07:21, 5 January 2013
गीता अध्याय-7 श्लोक-3 / Gita Chapter-7 Verse-3
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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