गीता 7:15: Difference between revisions

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पूर्व श्लोक में भगवान् ने यह बतलाया कि पापात्मा आसुरी प्रकृति वाले मूढ लोग मेरा भजन नहीं करते हैं । इससे यह जिज्ञासा होती है कि फिर कैसे मनुष्य आपका भजन करते हैं, इस पर भगवान् कहते हैं-  
पूर्व [[श्लोक]] में भगवान् ने यह बतलाया कि पापात्मा आसुरी प्रकृति वाले मूढ लोग मेरा भजन नहीं करते हैं। इससे यह जिज्ञासा होती है कि फिर कैसे मनुष्य आपका भजन करते हैं, इस पर भगवान् कहते हैं-  
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माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते हैं ।।15।।
माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते हैं ।।15।।


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Latest revision as of 08:06, 5 January 2013

गीता अध्याय-7 श्लोक-15 / Gita Chapter-7 Verse-15

प्रसंग-


पूर्व श्लोक में भगवान् ने यह बतलाया कि पापात्मा आसुरी प्रकृति वाले मूढ लोग मेरा भजन नहीं करते हैं। इससे यह जिज्ञासा होती है कि फिर कैसे मनुष्य आपका भजन करते हैं, इस पर भगवान् कहते हैं-


न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ।।15।।



माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते हैं ।।15।।

Those whose wisdom has been carried away by maya, and who have embraced the demoniac nature, such foolish and vile men of evil deeds do not adore Me.(15)


मायया = माया द्वारा ; अपहृतज्ञाना: = हरे हुए ज्ञानवाले (और) ; आसुरम् = आसुरी ; भावम् = स्वभाव को ; आश्रिता: = धारण किये हुए (तथा); नराधमा: = मनुष्ययों में नीच ; दुष्कृतिन: = दूषित कर्म करने वाले ; मूढा: = मूढ लोग (तो) ; माभ् = मेरे को ; न = नहीं ; प्रपद्यन्ते = भजते हैं



अध्याय सात श्लोक संख्या
Verses- Chapter-7

1 | 2 | 3 | 4, 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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