गीता 15:17: Difference between revisions

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इस प्रकार क्षर और अक्षर पुरुष का स्वरूप बतलाकर अब उन दोनों से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम भगवान् के स्वरूप का और पुरुषोत्तम होने के कारण का वर्णन दो [[श्लोक|श्लोकों]] में करते हैं-
 
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Latest revision as of 11:13, 6 January 2013

गीता अध्याय-15 श्लोक-17 / Gita Chapter-15 Verse-17

प्रसंग-


इस प्रकार क्षर और अक्षर पुरुष का स्वरूप बतलाकर अब उन दोनों से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम भगवान् के स्वरूप का और पुरुषोत्तम होने के कारण का वर्णन दो श्लोकों में करते हैं-


उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वर: ।।17।।



इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है ।।17।।

The Supreme Person is yet other than these, who, having entered all the three worlds, upholds and maintains all, and has been spoken of as the imperishable Lord and the supreme Spirit. (17)


उत्तम: = उत्तम ; पुरुष: = पुरुष ; तु = तो ; अन्य: = अन्य ही है (कि) ; य: = जो ; लोकत्रयम् = तीनों लोकों में ; आविश्य = प्रवेश करके ; बिभर्ति = सबका धारणा पोषण करता है (एवं) ; अव्यय: = अविनाशी ; ईश्र्वर: = परमेश्र्वर (और) ; परमात्मा = परमात्मा ; इति = ऐसे ; उदाहृत: = कहा गया है ;



अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-15

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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