गीता 18:65: Difference between revisions

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पूर्वश्लोक में जिस सर्वगुह्रातम बात को कहने की भगवान् ने प्रतिज्ञा की, उसे अब कहते हैं-  
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हे <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
हे [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> ! तू मुझमें मन वाला हो, मेरा [[भक्त]] बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।।65।।  
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर । ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।।65।।  


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मन्मना: भव = केवल मुझें  सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य निरन्तर अचल मनवाला हो (और) ; मभ्दक्त (भव) = मुझ परमेश्र्वर को ही अतिशय श्रद्धा भक्तिसहित निष्काभाव से नाम गुण और प्रभाव के श्रवण कीर्तन मनन और पठनपाठन द्वारा निरन्तर भजनेवाला हो (तथा) ; मद्याजी (भव) = मेरा (शख्ड चक्र गदा पद्म और किरीट कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्ति और प्रेम से विव्हलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो (और) ; माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्र्वर्य  माधुर्य गम्भीरता उदारता वात्सल्य और सुहृदया आदि गुणों से सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को ; नमस्कुरु = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टांग दण्डवत् प्रमाण कर ; एवम् = ऐसा करने से (तूं) ; माम् = मेरे को एव = ही ; एष्यसि = प्राप्त होगा (यह मैं) ; ते= तेरे लिये ; सत्यम् = सत्य ; प्रतिजाने = प्रतिज्ञा करता हूं ; यत: = क्योंकि (तूं) ; मे = मेरा ; प्रिय: = अत्यन्त प्रिय (सखा) ; असि = है   
मन्मना: भव = केवल मुझें  सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य निरन्तर अचल मनवाला हो (और) ; मभ्दक्त (भव) = मुझ परमेश्र्वर को ही अतिशय श्रद्धा भक्तिसहित निष्काभाव से नाम गुण और प्रभाव के श्रवण कीर्तन मनन और पठनपाठन द्वारा निरन्तर भजनेवाला हो (तथा) ; मद्याजी (भव) = मेरा (शख्ड चक्र गदा पद्म और [[किरीट]] कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्ति और प्रेम से विव्हलतापूर्वक पूजन करने वाला हो (और) ; माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्र्वर्य  माधुर्य गम्भीरता उदारता वात्सल्य और सुहृदया आदि गुणों से सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को ; नमस्कुरु = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टांग दण्डवत् प्रमाण कर ; एवम् = ऐसा करने से (तूं) ; माम् = मेरे को एव = ही ; एष्यसि = प्राप्त होगा (यह मैं) ; ते= तेरे लिये ; सत्यम् = सत्य ; प्रतिजाने = प्रतिज्ञा करता हूं ; यत: = क्योंकि (तूं) ; मे = मेरा ; प्रिय: = अत्यन्त प्रिय (सखा) ; असि = है   
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 13:52, 6 September 2017

गीता अध्याय-18 श्लोक-65 / Gita Chapter-18 Verse-65

प्रसंग-


पूर्व श्लोक में जिस सर्वगुह्रातम बात को कहने की भगवान् ने प्रतिज्ञा की, उसे अब कहते हैं-


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।65।।



हे अर्जुन[1] ! तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।।65।।

O Arjuna, give your mind to Me, be devoted to Me, worship Me and bow to Me. Doing so you will come to Me alone, I truly promise you; for you are exceptionally dear to Me.(65)


मन्मना: भव = केवल मुझें सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य निरन्तर अचल मनवाला हो (और) ; मभ्दक्त (भव) = मुझ परमेश्र्वर को ही अतिशय श्रद्धा भक्तिसहित निष्काभाव से नाम गुण और प्रभाव के श्रवण कीर्तन मनन और पठनपाठन द्वारा निरन्तर भजनेवाला हो (तथा) ; मद्याजी (भव) = मेरा (शख्ड चक्र गदा पद्म और किरीट कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्ति और प्रेम से विव्हलतापूर्वक पूजन करने वाला हो (और) ; माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्र्वर्य माधुर्य गम्भीरता उदारता वात्सल्य और सुहृदया आदि गुणों से सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को ; नमस्कुरु = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टांग दण्डवत् प्रमाण कर ; एवम् = ऐसा करने से (तूं) ; माम् = मेरे को एव = ही ; एष्यसि = प्राप्त होगा (यह मैं) ; ते= तेरे लिये ; सत्यम् = सत्य ; प्रतिजाने = प्रतिज्ञा करता हूं ; यत: = क्योंकि (तूं) ; मे = मेरा ; प्रिय: = अत्यन्त प्रिय (सखा) ; असि = है



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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