गीता 11:36: Difference between revisions
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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अब छत्तीसवें से छियालीसवें श्लोक तक < | अब छत्तीसवें से छियालीसवें [[श्लोक]] तक [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> द्वारा किये हुए भगवान् के स्तवन, और क्षमा याचनासहित प्रार्थना का वर्णन है, उसमें प्रथम 'स्थाने' पद का प्रयोग करके जगत् के हर्षित होने आदि का औचित्य बतलाते हैं- | ||
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'''अर्जुन बोले-''' | '''अर्जुन बोले-''' | ||
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हे < | हे अन्तर्यामिन्<ref>मधुसूदन, केशव, पुरुषोत्तम,अन्तर्यामिन्, वासुदेव, माधव, जनार्दन और वार्ष्णेय सभी भगवान् [[कृष्ण]] का ही सम्बोधन है।</ref> ! यह योग्य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत् अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्ध गणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं ।।36।। | ||
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==संबंधित लेख== | |||
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Latest revision as of 07:28, 6 January 2013
गीता अध्याय-11 श्लोक-36 / Gita Chapter-11 Verse-36
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख |
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