युयुत्सु: Difference between revisions
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==जन्म== | |||
[[गांधारी]] गर्भ के समय [[धृतराष्ट्र]] की सेवा आदि कार्य करने में असमर्थ हो गयी थी, अत: उनकी सेवा के लिये एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का युयुत्सु नामक एक पुत्र हुआ। जिस प्रकार दासी से उत्पन्न होने पर भी [[विदुर]] को राजकुमारों का सा सम्मान दिया गया था, उसी प्रकार युयुत्सु को भी राजकुमारों जैसा सम्मान और अधिकार प्राप्त थे, क्योंकि वह धृतराष्ट्र का पुत्र था। | |||
==शिक्षा-दीक्षा== | |||
राजकुमारों की तरह ही युयुत्सु की भी शिक्षा-दीक्षा हुई और वह काफ़ी योग्य सिद्ध हुआ। वह एक धर्मात्मा था, इसलिए [[दुर्योधन]] की अनुचित चेष्टाओं को बिल्कुल पसन्द नहीं करता था और उनका विरोध भी करता था। इस कारण दुर्योधन और उसके अन्य भाई उसको महत्त्व नहीं देते थे और उसका हास्य भी उड़ाते थे। युयुत्सु ने महाभारत युद्ध रोकने का अपने स्तर पर बहुत प्रयास किया था और दरबार में भी ऐसे ही विचार प्रकट करता था, लेकिन उसकी बात नक्कारखाने में तूती की तरह बनकर रह जाती थी।<ref name="aa">{{cite web |url=http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/Khattha-Meetha/entry/yuyutsu1|title=महाभारत का एक पात्र- युयुत्सु|accessmonthday= 04 दिसम्बर|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स|language= हिन्दी}}</ref> | |||
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==महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ== | |||
महाभारत युद्ध में युयुत्सु ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। युधिष्ठिर ने उसको सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा, बल्कि उसकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। उसने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी। युद्ध के बाद भी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। महाराज युधिष्ठिर ने उसे अपना मंत्री बनाया। [[धृतराष्ट्र]] के लिए जो भूमिका [[विदुर]] ने निभाई थी, लगभग वही भूमिका युधिष्ठिर के लिए युयुत्सु ने निभाई। इतना ही नहीं, जब युधिष्ठिर महाप्रयाण करने लगे और उन्होंने [[परीक्षित]] को राजा बनाया, तो युयुत्सु को उसका संरक्षक बना दिया। युयुत्सु ने इस दायित्व को भी अपने जीवने के अंतिम क्षण तक पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ निभाया।<ref name="aa"/> | |||
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युयुत्सु महाभारत के पात्रों में से एक तथा हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र का होनहार पुत्र था। वह महाभारत का एक उज्ज्वल और तेजस्वी योद्धा था। युयुत्सु महाभारत में इसलिए भी विशेष है, क्योंकि महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर के आह्वान पर उसने कौरवों की सेना का साथ छोड़कर पांडव सेना में मिलने और उन्हीं की ओर से युद्ध का निर्णय लिया।
जन्म
गांधारी गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा आदि कार्य करने में असमर्थ हो गयी थी, अत: उनकी सेवा के लिये एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का युयुत्सु नामक एक पुत्र हुआ। जिस प्रकार दासी से उत्पन्न होने पर भी विदुर को राजकुमारों का सा सम्मान दिया गया था, उसी प्रकार युयुत्सु को भी राजकुमारों जैसा सम्मान और अधिकार प्राप्त थे, क्योंकि वह धृतराष्ट्र का पुत्र था।
शिक्षा-दीक्षा
राजकुमारों की तरह ही युयुत्सु की भी शिक्षा-दीक्षा हुई और वह काफ़ी योग्य सिद्ध हुआ। वह एक धर्मात्मा था, इसलिए दुर्योधन की अनुचित चेष्टाओं को बिल्कुल पसन्द नहीं करता था और उनका विरोध भी करता था। इस कारण दुर्योधन और उसके अन्य भाई उसको महत्त्व नहीं देते थे और उसका हास्य भी उड़ाते थे। युयुत्सु ने महाभारत युद्ध रोकने का अपने स्तर पर बहुत प्रयास किया था और दरबार में भी ऐसे ही विचार प्रकट करता था, लेकिन उसकी बात नक्कारखाने में तूती की तरह बनकर रह जाती थी।[1]
पांडव पक्षीय योद्धा
जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने वाला था, तो युयुत्सु भी लाचारवश दुर्योधन के पक्ष में लड़ने के लिए मैदान में उपस्थित हो गया। उसी समय युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर ने कौरव सेना को सुनाते हुए घोषणा की- "मेरा पक्ष धर्म का है। जो धर्म के लिए लड़ना चाहते हैं, वे अभी भी मेरे पक्ष में आ सकते हैं। मैं उसका स्वागत करूँगा।" इस घोषणा को सुनकर केवल युयुत्सु कौरव पक्ष से निकलकर आया और पांडव के पक्ष में शामिल हो गया। युधिष्ठिर ने गले लगाकर उसका स्वागत किया। कौरवों ने उसको बनिया-महिला का बेटा और कायर कहकर अपमानित किया, लेकिन उसने अपना निर्णय नहीं बदला।
महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ
महाभारत युद्ध में युयुत्सु ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। युधिष्ठिर ने उसको सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा, बल्कि उसकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। उसने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी। युद्ध के बाद भी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। महाराज युधिष्ठिर ने उसे अपना मंत्री बनाया। धृतराष्ट्र के लिए जो भूमिका विदुर ने निभाई थी, लगभग वही भूमिका युधिष्ठिर के लिए युयुत्सु ने निभाई। इतना ही नहीं, जब युधिष्ठिर महाप्रयाण करने लगे और उन्होंने परीक्षित को राजा बनाया, तो युयुत्सु को उसका संरक्षक बना दिया। युयुत्सु ने इस दायित्व को भी अपने जीवने के अंतिम क्षण तक पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ निभाया।[1]
- वंशज
यह माना जाता है कि आजकल के उत्तर प्रदेश के पश्चिमी और राजस्थान के पूर्वी भागों में रहने वाले जो जाट जाति के लोग हैं, वे उन्हीं महात्मा युयुत्सु के वंशज हैं।
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टीका टिप्पणी
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत का एक पात्र- युयुत्सु (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 04 दिसम्बर, 2015।