गीता 13:7: Difference between revisions
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारों का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे श्लोक में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है- उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का 'ज्ञान' के ही नाम से पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं- | इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारों का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे [[श्लोक]] में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है- उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का 'ज्ञान' के ही नाम से पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं- | ||
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श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव , मन –वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्त:करण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर निग्रह ।।7।। | श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन –वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्त:करण की स्थिरता और मन-[[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] सहित शरीर निग्रह ।।7।। | ||
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==संबंधित लेख== | |||
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Latest revision as of 09:17, 6 January 2013
गीता अध्याय-13 श्लोक-7 / Gita Chapter-13 Verse-7
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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