गीता 5:27-28: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
m (Text replace - '<td> {{गीता अध्याय}} </td>' to '<td> {{गीता अध्याय}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>') |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "बुद्वि" to "बुद्धि") |
||
(5 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<table class="gita" width="100%" align="left"> | <table class="gita" width="100%" align="left"> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 9: | Line 8: | ||
'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
---- | ---- | ||
< | [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने कर्मयोग और सांख्ययोग के स्वरूप का प्रतिपादन करके दोनों साधनों द्वारा परमात्मा की प्राप्ति और सिद्ध पुरुषों के लक्षण बतलाये। फिर दोनों निष्ठाओं के लिये उपयोगी होने से ध्यान योग भी संक्षेप में वर्णन किया। अब जो मनुष्य इस प्रकार मन, [[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] पर विजय प्राप्त करके कर्मयोग, सांख्ययोग या ध्यानयोग का साधन करने में अपने को समर्थ नहीं समझता हो, ऐसे साधक के लिये सुगमता से परम पद की प्राप्ति कराने वाले भक्ति योग का संक्षेप में वर्णन करते हैं- | ||
---- | ---- | ||
<div align="center"> | <div align="center"> | ||
Line 26: | Line 24: | ||
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"| | | style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"| | ||
बाहर के विषय- भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है ।।27-28।। | बाहर के विषय- भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी [[इन्द्रियाँ]], मन और बुद्धि जीती हुई हैं- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है ।।27-28।। | ||
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"| | | style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"| | ||
Line 37: | Line 35: | ||
|- | |- | ||
| style="width:100%;text-align:center; font-size:110%;padding:5px;" valign="top" | | | style="width:100%;text-align:center; font-size:110%;padding:5px;" valign="top" | | ||
बाह्मान् = बाहर के; स्पर्शान् = विषय भोगों को (न चिन्तन करता हुआ); बहि: = बाहर; एव = ही; कृत्वा = त्यागकर; च = और; चक्षु: = नेत्रों की दृष्टि को; भ्रुवों: = भृकुटी के; अन्तरे = बीच में; नासाभ्यन्तर चारिणौं = नासिका में विचरनवाले; प्राणापानौ = प्राण और अपना वायु को; समौ = सम; कृत्वा = करके यतेन्द्रिय | बाह्मान् = बाहर के; स्पर्शान् = विषय भोगों को (न चिन्तन करता हुआ); बहि: = बाहर; एव = ही; कृत्वा = त्यागकर; च = और; चक्षु: = नेत्रों की दृष्टि को; भ्रुवों: = भृकुटी के; अन्तरे = बीच में; नासाभ्यन्तर चारिणौं = नासिका में विचरनवाले; प्राणापानौ = प्राण और अपना वायु को; समौ = सम; कृत्वा = करके यतेन्द्रिय मनोबुद्धि: = जीती हुई हैं इन्द्रियां मन और बुद्धि जिसकी ऐसा: य: = जों; मोक्षपरायण:मुनि: = मोक्षपरायण;विगतेच्छा = इच्छा, भय भयक्रोध: = इच्छा, भय और क्रोध से रहित है। | ||
|- | |- | ||
|} | |} | ||
Line 61: | Line 59: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td> | ||
{{ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | |||
==संबंधित लेख== | |||
{{गीता2}} | |||
</td> | </td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td> | ||
{{ | {{महाभारत}} | ||
</td> | </td> | ||
</tr> | </tr> |
Latest revision as of 08:18, 15 September 2017
गीता अध्याय-5 श्लोक-27-28 / Gita Chapter-5 Verse-27-28
|
||||
|
||||
|
||||
|
||||
टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
||||