गीता 17:5: Difference between revisions

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Revision as of 10:40, 21 March 2010

गीता अध्याय-17 श्लोक-5 / Gita Chapter-17 Verse-5

प्रसंग-


न जानने के कारण शास्त्रविधि का त्याग करके त्रिविध स्वाभाविक श्रद्धा के साथ यजन करने वालों का वर्णन किया गया, परंतु शास्त्रविधि का त्याग करने वाले अश्रद्धालु मनुष्यों के विषय में कुछ नहीं कहा गया, अत: यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि जिनमें श्रद्धा भी नहीं है और जो शास्त्रविधि को भी नहीं मानते और घोर तप आदि कर्म करते हैं, वे किस श्रेणी में हैं ? इस पर अगले दो श्लोकों में भगवान् कहते हैं-


अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: ।
दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता: ।।5।।



जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मन: कल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त है; ।।5।।

Men who practise dire penance of an arbitrary type not sanctioned by the scriptures, and who are full of hypocrisy and egotism and are obseseed with desire, attachment and pride of power;(5)


ये = जो ; जना: = मनुष्य ; अशास्त्रविहितम् = शास्त्रविधि से रहित (केवल मनोकल्पित) ; घोरम् = घोर ; तप: = तपको ; तप्यन्ते = तपते हैं (तथा) ; दम्भाहंकारसंयुक्ता: = दम्भ और अहंकार से युक्त (एवं) ; कामराग बलान्विता: = कामना आसक्ति और अभिमान से भी युक्त हैं



अध्याय सतरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-17

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)