गीता 18:16: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (1 अवतरण)
m (Text replace - "<td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>" to "<td> {{गीता2}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td>")
Line 58: Line 58:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{महाभारत}}
{{गीता2}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{गीता2}}
{{महाभारत}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>

Revision as of 13:50, 21 March 2010

गीता अध्याय-18 श्लोक-16 / Gita Chapter-18 Verse-16

प्रसंग-


इस प्रकार सांख्ययोग के सिद्धान्त से समस्त कर्मों की सिद्धि के अधिष्ठानादि पाँच कारणों का निरूपण करके अब, वास्तव में आत्मा का कर्मों से कोई संबंध नहीं है, आत्मा सर्वथा शुद्ध निर्विकार और अकर्ता है- यह बात समझाने के लिये पहले आत्मा को कर्ता मानने वाले की निन्दा करते हैं-


तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति: ।।16।।



परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल- शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलिन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ।।16।।

Not with standing this, however, he who, having an impure mind, regards the absolute, taintless Salf alone as the doer, that man of perverse understanding does not view aright. (16)


तु = परन्तु ; एवम् = ऐसा ; सति = होने पर भी ; य: = जो पुरुष ; अकृंतबुद्धित्वात् = अशुद्ध बुद्धि होने के कारण ; तत्र = उस विषय में ; केवलम् = केवल शुद्ध स्वरूप ; आत्मानम् = आत्मा को ; कर्तारम् = कर्ता ; पश्यति = देखता है ; स: = वह ; दुर्भति: = मलिन बुद्धिवाला अज्ञानी ; न पश्यति = यथार्थ नहीं देखता हैं ;



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)