गीता 2:5: Difference between revisions

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Revision as of 14:26, 21 March 2010

गीता अध्याय-2 श्लोक-5 / Gita Chapter-2 Verse-5

प्रसंग-


इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को सन्तोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गयी, तब वे फिर कहने लगे-


गुरुनहत्वा हि महानुभावान् |
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव |
भुज्जीय भोगान्रूधिरप्रदिग्धान् ।।5।।




इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अत्र भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ । क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रूधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा ।।5।।


It is better to live in this world by begging than to live at the cost of the lives of great souls who are my teachers. Even though they are avaricious, they are nonetheless superiors. If they are killed, our spoils will be tainted with blood.(5)


महानुभावान् = महानुभाव; गुरुन् = गुरुजनोंको ; अहत्वा = न मारकर ; इह =इस ; लोके = लोकमें ; भैक्ष्यम् = भिक्षाका अन्न ; अपि = भी ; भोक्तुम् = भोगना ; श्रेय: = कल्याणकारक (समझता हूं) ; हि = क्योंकि ; गुरुन् = गुरुजनोंको ; हत्वा = मारकर ; (अपि) = भी ; इह = इस लोकमें ; रूधिरप्रदिग्घान् = रूधिरसे सने हुए ; अर्थकामान् = अर्थ और कामरूप ; भोगान् = भोगोंको ; एव = ही ; तु = तो ; भुझीय = भोगूंगा ; एतत् = यह ; च = भी ;



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)