गीता 9:32: Difference between revisions

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Revision as of 15:41, 21 March 2010

गीता अध्याय-9 श्लोक-32 / Gita Chapter-9 Verse-32

प्रसंग-


इस प्रकार सदाचारिता और दुराचारिता के कारण होने वाली विषमता का अपने में अभाव दिखलाकर अब दो श्लोकों में भगवान् अच्छी बुरी जाति के कारण होने वाली विषमता का अपने में अभाव दिखलाते हुए शरणागति रूप भक्ति का महत्व प्रतिपादन करके <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भजन करने की आज्ञा देते हैं-


मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य
येऽपि स्यु: पापयोनय: ।
स्त्रियो वैश्वास्तथा शूद्रा-
स्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।32।।



हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयानि- चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं ।।32।।

Arjuna, women, vaisyas (members of the trading and agriculturist classes)sudras (those belonging to the labouring and artisan classes), as well as those of vile birth (such as the pariah), whoever they may be, taking refuge in me they too attain the supreme goal. (32)


हि = क्योंकि; पार्थ = हे अर्जुन; स्त्रिय: = स्त्री; शूद्रा: = शूद्रादिक; पापयोनय: = पापयोनिवाले; अपि = भी; ये = जो कोई; स्यु: = होवें; ते = वे; अपि = भी; माम् = मेरे; व्यपाश्रित्य = शरण होकर(तो); पराम् = परम; गतिम् = गति को (ही); यान्ति = प्राप्त होते हैं ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)