गीता 13:30: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - '<td> {{गीता अध्याय}} </td>' to '<td> {{गीता अध्याय}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>')
 
m (1 अवतरण)
(No difference)

Revision as of 10:29, 21 March 2010

गीता अध्याय-13 श्लोक-30 / Gita Chapter-13 Verse-30

प्रसंग-


इस प्रकार आत्मा को अकर्ता समझने की महिमा बतलाकर अब उसके एकत्वदर्शन का फल बतलाते हैं-


यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्रा संपद्यते तदा ।।30।।



जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक्-पृथक् भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।।30।।

The moment man perceives the diversified existence of beings as rooted in the one supreme spirit, and the spreading forth of all beings from the same, that very moment he attains Brahma (who is truth, consciousness and bliss solidified). (30)


यदा = जिस काल में ; भूतपृथग्भावम् = भूतोंके न्यारे न्यारे भावको ; एकस्थम् = एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थित ; अनुपश्यति = देखता है ; च = तथा ; तत: = उस परमात्मा के संकल्पसे ; एव =ही ; विस्तारम् = संपूर्ण भूतों का विस्तार ; पश्यति = देखता है ; तदा = उस काल में ; ब्रह्म = सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको  ; संपद्यते = प्राप्त होता है ;



अध्याय तेरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-13

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)