गीता 18:3: Difference between revisions

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Revision as of 10:40, 21 March 2010

गीता अध्याय-18 श्लोक-3 / Gita Chapter-18 Verse-3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे ।।3।।



कई विद्धान ऐसा कहते हैं कि कर्मपात्र दोष युक्त हैं, इसलिये त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्धान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है ।।3।।

Some wise men declare that all actions contain a measure of evil, and are therefore worth giving up, while others say that acts of sacrifice, charity and penance are not worth shunning. (3)


एके = कई एक ; इति = ऐसे ; प्राहु: = कहते हैं (कि) ; कर्म = कर्म (सभी) ; दोषवत् = दोषयुक्त हैं (इसलिये) ; त्याज्यम् = त्याग ने के योग्य हैं ; च = और ; मनीषिण: = विद्वान् ; अपरे = दूसरे विद्वान् ; इति = ऐसे ; आहु: = कहते हैं (कि) ; यज्ञदानतप:कर्म = यज्ञ दान और तपरूप कर्म ; न त्याज्यम् = त्यागने योग्य नहीं हैं ;



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)