गीता 15:2: Difference between revisions

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Latest revision as of 10:46, 6 January 2013

गीता अध्याय-15 श्लोक-2 / Gita Chapter-15 Verse-2

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला: ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।2।।



उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जन के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय भोग रूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनि रूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता, ममता और वासना रूप जड़े भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं ।।2।।

Fed by the three Gunas and having sense-objects for their tender leaves, the branches of the aforesaid tree (in the shape of the different orders of creation) extend both downwards and upwards; and its roots, which bind the soul according to its action in the human body, are spread in all regions, higher as well as lower. (2)


तस्य = उस संसार वृक्ष की ; गुणप्रवृद्धा: = तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढी हुई (एवं) ; विषयप्रवाला: = विषय भोगरूप कोंपलों वाली ; शाखा: = देव मनुष्य और तिर्यक आदि योनिरूप शाखाएं ; (अपि) = भी ; अध: = नीचे ; च = और ; अध: = नीचे ; च = और ; ऊर्ध्वम् = ऊपर सर्वत्र ; प्रसृता: = फैली हुई हैं (तथा) ; मनुष्यलोके = मनुष्य योनि में ; कर्मानुबन्धीनि = कर्मों के अनुसार बांधने वाली ; भूलानि = अहंता ममता और वासनारूप जडें; (ऊर्ध्वम्) = ऊपर ; अनुसंततानि = सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं ;



अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-15

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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