गीता 18:2: Difference between revisions

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Revision as of 13:33, 6 January 2013

गीता अध्याय-18 श्लोक-2 / Gita Chapter-18 Verse-2

प्रसंग-


इस प्रकार अर्जुन[1] के पूछने पर भगवान् अपना निश्चय प्रकट करने के पहले संन्यास और त्याग के विषय में दो श्लोकों द्वारा अन्य विद्धानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाते हैं-

श्रीभगवानुवाच-


काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा: ।।2।।



श्रीभगवान् बोले-


कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचार कुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं ।।2।।

Sri Bhagavan said :


Some sages understand Samnyasa as the giving up of all actions motivated by desire; and other thinkers declare that Tyaga consists in relinquishing the fruit of all actions. (2)


कवय: = पण्डितजन (तो) ; काम्यानाम् = काम्य ; कर्मणाम् = कर्मों के ; न्यासम् = त्याग को ; संन्यासम् = संन्यास ; विदु: = जानते हैं ; (च) = और ; विचक्षणा: = विचारकुशल पुरुष ; सर्वकर्मफलत्यागम् = सब कर्मों के फलके त्याग को ; त्यागम् = त्याग ; प्राहु: = कहते हैं ;



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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