गीता 18:50: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (1 अवतरण)
m (Text replace - "<td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>" to "<td> {{गीता2}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td>")
Line 57: Line 57:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{महाभारत}}
{{गीता2}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{गीता2}}
{{महाभारत}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>

Revision as of 14:01, 21 March 2010

गीता अध्याय-18 श्लोक-50 / Gita Chapter-18 Verse-50

प्रसंग-


उपर्युक्त श्लोक में यह बात कही गयी कि संन्यास के द्वारा मनुष्य परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उस संन्यास (सांख्ययोग) का क्या स्वरूप है और उसके द्वारा मनुष्य किस क्रम से सिद्धि को प्राप्त होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है ? अत: इन सब बातों को बतलाने की प्रस्तावना करते हुए भगवान् <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को सुनने के लिये सावधान करते हैं-


सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्रा तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।।50।।



जो कि ज्ञानयोग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे <balloon link="कुन्ती" title="ये वसुदेवजी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं। महाभारत में महाराज पाण्डु की पत्नी । ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">कुन्ती</balloon> पुत्र ! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ।।50।।

O son of Kunti, learn from Me in brief how one can attain to the supreme perfectional stage, Brahman, by acting in the way I shall now summarize. (50)


कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र ; सिद्धिम् = अन्त:करण की शुद्धिरूप सिद्धि को ; प्राप्त: = प्राप्त हुआ पुरुष ; यथा = जैसे (सांख्ययोग के द्वारा); ब्रह्म = सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को ; आप्रोति = प्राप्त होता है ; तथा = तथा ; या = जो ; ज्ञानस्य = तत्त्वज्ञानकी ; परा = परा ; निष्ठा = निष्ठा है ; तत् = उसको ; एव = भी (तूं) ; मे = मेरे से ; समासेन = संक्षेप से ; निबोध = जान



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)