गीता 1:45: Difference between revisions

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Revision as of 14:13, 21 March 2010

गीता अध्याय-1 श्लोक-45 / Gita Chapter-1 Verse-45

प्रसंग-


इस प्रकार पश्चाताप करने के बाद अब <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> अपना निर्णय सुनाते हैं-


अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: ।।45।।



हा ! शोक ! हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं ।।45।।

Oh what a pity ! though possessed of intelligence we have set our mind on the commission of a great sin in that due to lust for throne and enjoyment we are intent on killing own kinsmen. (45)


बत = शोक है (कि); वयम् = हम लोग (बुद्धिमान् होकर भी); महत्पापम् = महान पाप; कर्तुम् = करने को; व्यवसिता: = तैयार हुए हैं; यत् = जो कि; राज्यसुखलोभेन =राज्य और सुख के लोभ से; स्वजनम् = अपने कुल को; हन्तुम् = मारने के लिये; उद्यता: = उद्यत हुए हैं



अध्याय एक श्लोक संख्या
Verses- Chapter-1

1 | 2 | 3 | 4, 5, 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17, 18 | 19 | 20, 21 | 22 | 23 | 24, 25 | 26 | 27 | 28, 29 | 30 | 31 | 32 | 33, 34 | 35 | 36 | 37 | 38, 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)