लाक्षागृह: Difference between revisions
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Revision as of 07:53, 31 May 2016
- महाभारत में ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार पाण्डव अपनी माता कुन्ती के साथ वार्णावर्त नगर में महादेव को मेला देखने गये।
- दुर्योधन ने इसकी पूर्व सूचना प्राप्त करके अपने एक मन्त्री पुरोचन को वहाँ भेजकर एक लाक्षागृह तैयार कराया।
- पुरोचन पाण्डव को जलाने की प्रतीक्षा करने लगा।
- योजना के अनुसार पाण्डव लाक्षागृह में रहने लगे।
- घर को देखने से तथा विदुर के कुछ संकेतों से पाण्डवों को घर का रहस्य ज्ञात हो गया।
- विदुर के एक व्यक्ति ने उसमें गुप्त सुरंग बनायी, जिसके द्वारा आग लगने की स्थिति में निकल सकना सम्भव था।
- जिस दिन पुरोचन ने आग प्रज्जवलित करने की योजना की थी, उसी दिन पाण्डवों ने नगर के ब्राह्मणों को भोज के लिए आमन्त्रित किया।
- साथ में अनेक निर्धन खाने आये।
- सब लोग खा-पीकर चले गये पर एक भीलनी अपने पाँच पुत्रों के साथ वहाँ सो रही।
- रात में पुरोचन के सोने पर भीम ने उसके कमरे में आग लगायी। धीरे-धीरे आग चारों ओर लग गयी।
- वह माता भाइयों के साथ सुरंग से बाहर निकल गया।
- प्रात:काल भीलनी को उसके पांच पुत्रों सहित मृत अवस्था में पाकर लोगों को पाण्डवों के कुन्ती के साथ जल मरने का भ्रम हुआ।
- इससे दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ किन्तु यथार्थता का ज्ञान होने पर उसे बहुत दु:ख हुआ।
- लाक्षागृह इलाहाबाद से पूरब गंगा तट पर है।
- सन 1922 ई. तक उसकी कुछ कोठरियाँ विद्यमान थीं पर अब वे गंगा की धारा से कट कर गिर गयीं। कुछ अंश अभी भी शेष है। उसकी मिट्टी भी विचित्र तरह की लाख की-सी ही है।
महाभारत से
पांडवों के प्रति प्रजाजनों का पूज्य भाव देखकर दुर्योधन बहुत चिंतित हुआ। उसने जाकर धृतराष्ट्र से कहा कि वह किसी प्रकार पांडवों को हस्तिनापुर से हटाकर वारणावत भेज दें। प्रजाजनों को वह (दुर्योधन) जब अपने पक्ष में कर ले तब उन्हें फिर से बुलवा लें, अन्यथा प्रजाजन दुर्योधन को युवराज ने बनाकर युधिष्ठिर को बनाना चाहते हैं धृतराष्ट्र ने उसका सुझाव तुंरत स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वारणावत प्रदेश की प्राकृतिक सुषमा का बार-बार वर्णन करके पांडवों को प्रकृति-सौंदर्य देखने के लिए प्रेरित किया। दुर्योधन ने अपने मन्त्री पुरोचन की सहायता से वारणावत में पांडवों के रहने के लिए एक महल बनवाया। वह अत्यंत सुंदर था किंतु उसका निर्माण लाख आदि शीघ्र प्रज्वलित होनेवाले पदार्थों से किया गया था। विदुर जी ने इस रहस्य को जाना तो तुरंत पांडवों को सावधान कर दिया। विदुर के भेजे हुए एक विश्वस्त व्यक्ति ने गुप्त रूप से लाक्षागृह में एक सुरंग खोदी। पुरोचन अत्यंत सावधान रहने पर भी इस भेद को नहीं जान पाया। पांडव दिन भर मृगया के बहाने से बाहर रहते थे और रात को घर तथा पुरोचन पर पहरा रखते। एक बार कुंती ने बहुत-से ब्राह्मणों को भोजन कराया तथा ग़रीबों को दान दिया। उस रात एक भीलनी अपने पांच बेटों के साथ उसी लाक्षागृह में सो गयी। आधी रात को पांडव तथा कुंती सुरंग के मार्ग से बाहर जंगल में भाग गये और भीमसेन ने भागने से पूर्व घर में आग लगा दी। लाक्षागृह में पुरोचन तथा अपने बेटों के साथ भीलनी जलकर मर गये। कुंती तथा पांडवों के लिए विदुर ने एक विश्वस्त आदमी को नौका सहित भेजा था। सुरंग जिस जंगल में खुलती थी, वहाँ गंगा नदी थी। विदुर की भेजी हुई नौका की सहायता से वे लोग गंगा के दूसरी पार पहुंच गये। [1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, आदिपर्व, 140, 148