गीता 2:3

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गीता अध्याय-2 श्लोक-3 / Gita Chapter-2 Verse-3

प्रसंग-


भगवान् के इस प्रकार कहने पर गुरुजनों के साथ किये जाने वाले युद्ध को अनुचित सिद्ध करते हुए दो श्लोकों में अर्जुन अपना निश्चय प्रकट करते हैं-


क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।।3।।



इसलिये हे अर्जुन[1] ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप[2] ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ।।3।।

Yield not to unmanliness, Arjuna ill does it become you. shaking off this paltry faint-heartedness stand up, O scorcher of enemies.(3)



पार्थ = हे अर्जुन ; क्लैव्यम् = नपुंसकताको ; मा स्म गम: = मत प्राप्त हो; एतत् = यह ; त्वयि = तेरेमें ; न उपपद्यते = योग्य नहीं है ; परंतप = हे परंतप ; क्षुद्रम् = तुच्छ ; हृदय दौर्बल्यम् = हृदयकी दुर्बलताको ; त्यक्त्वा = त्यागकर ; उत्तिष्ठ = युद्ध के लिये खडा हो ;



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।
  2. पार्थ, भारत, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।

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