इस प्रकार भक्तियोग द्वारा भगवान् को प्राप्त हुए पुरुष के महत्त्व का प्रतिपादन करके अब सांख्ययोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के समदर्शन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं-
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।31।।
जो पुरुष एकीभाव से स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव[1] को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझ में ही बरतता है ।।31।।
The yogi who knows that I and the Supersoul within all creatures are one worships me and remains always in me in all circumstances. (31)
य: = जो पुरुष; एकत्वम् = एकीभाव में; आस्थित: = स्थित हुआ; सर्वभूतस्थितम् = संपूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित; माम् = मुझ सच्चिदानन्द धन वासुदेव को; भजति = भजता है; स: = वह; सर्वथा = सब प्रकार से; वर्तमान: = बर्तता हुआ; अपि =भी; मयि = मेरे में ही; वर्तते = बर्तता है।