गीता 6:32

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गीता अध्याय-6 श्लोक-32 / Gita Chapter-6 Verse-32

प्रसंग-


भगवान् के समता सम्बन्धी उपदेश को सुनकर अर्जुन[1] मन की चंचलता के कारण उसमें अपनी अचल स्थिति होना बहुत कठिन समझकर कह रहे हैं-


आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।।32।।



हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दु:ख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ।।32।।

Arjuna, he who looks on all as one, on the analogy of his own self, and looks upon the joy and sorrow of all with a similar eye,- such a yogi is deemed the highest of all.(32)


य: = जो योगी; आत्मौपम्येन = अपनी सादृश्यता से;सर्वत्र =संपूर्ण भूतों में; समम् =सम; पश्चति = देखता है; वा =और; सुखम् = सुख; यदि वा =अथवा; दु:खम् =दु:ख को (भी) (सब में सम देखता है); स: = वह; योगी =योगी; परम: = परम श्रेष्ठ; मत: = माना गया है।



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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