यहाँ स्वभावत: मनुष्य मान सकता है कि शास्त्रविहित करने योग्य कर्मों का नाम कर्म है और क्रियाओं का स्वरूप से त्याग कर देना ही अकर्म है- इसमें मोहित होने की कौन-सी बात है और इन्हें जानना क्या हैं ? किंतु इतना जान लेने मात्र से ही वास्तविक कर्म-अकर्म का निर्णय नहीं हो सकता, कर्मों के तत्व को भलीभाँति समझने की आवश्यकता है । इस भाव को स्पष्ट करने के लिये भगवान् कहते हैं-
कर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ? – इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं । इसलिये वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ।।16।।
What is action and what is inaction ? Even men of intelligence are puzzled over this question. Therefore, I shall expound to you the truth about action, knowing which you will be freed from its evil effect (binding nature). (16)
कर्म = कर्म; किम् = क्या है (और ); अकर्म = अकर्म; किम् = क्या है; इति = ऐसे; अत्र = इस विषय में; कवय: = बुद्धिमान् पुरुष; अपि = भी; मोहिता: = मोहित है (इसलिये मैं) तत् = वह; कर्म = कर्म अर्थात् कर्मों का तत्व; तें = तेरे लिये; प्रवक्ष्यामि = अच्छी प्रकार कहूंगा (कि); यत् = जिसको; ज्ञात्वा = जानकर (तूं); अशुभात् = अशुभ अर्थात् संसारबन्धन से; मोक्ष्य से = छूट जायगा।