उपर्युक्त श्लोकों में यह बात सिद्ध की गयी कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध महापुरुषों का तो कर्म करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा ज्ञानयोग के साधक का ग्रहण और त्याग शास्त्रसम्मत, आसक्तरहित और ममतारहित होता है; अत: वे कर्म करते हुए या उनका त्याग करते हुए-सभी अवस्थाओं में कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हैं । अब भगवान् यह बात दिखलाते हैं कि कर्म में अकर्म दर्शन पूर्वक कर्म करने वाला कर्मयोगी भी कर्मबन्धन में नहीं पड़ता-
जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता ।।21।।
Having subdued his mind and body, and given up all objects of enjoyment, and free from craving; he who performs sheer bodily actions, does not incur sin. (21)
यतचित्तात्मा = जीत लिया है अन्त:करण और शरीर जिसने (तथा); त्यक्तसर्वपरिग्रह: = त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने (ऐसा); निराशी: = आशारहित पुरुष; केवलम् = केवल; शारीरम् = शरीरसम्बन्धी; कर्म = कर्म को; कुर्वन् = करता हुआ (भी); किल्बिषम् = पापको; न = नहीं; आप्रोति = प्राप्त होता है।