गीता 11:29

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 12:24, 21 March 2010 by Ashwani Bhatia (talk | contribs) (Text replace - "<td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>" to "<td> {{गीता2}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td>")
Jump to navigation Jump to search

गीता अध्याय-11 श्लोक-29 / Gita Chapter-11 Verse-29


यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतग्ङा:
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा: ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-
स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा: ।।29।।



जैसे पतंगे मोहवश नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं ।।29।।

As moths rush with great speed into the blazing fire for extinction out of their folly, even so all these pepole are with great repidity entering your mouths to meet their doom. (29)


यथा = जैसे; नाशाय = नष्ट होने के लिये; प्रदीप्तम् = प्रज्वलित; ज्वलनम् = अग्रिममें; समृद्धवेगा: अतिवेगसे युक्त हुए; विशन्ति = प्रवेश करते हैं; लोका: = यह सब लोग; अपि = भी; नाशाय = अपने नाश के लिये; तब = आपके; वक्त्राणि = मुखोंमें; समृद्धवेगा: = अति वेग से युक्त हुए; विशन्ति = प्रवेश करते हैं



अध्याय ग्यारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-11

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10, 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26, 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41, 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः