क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार-चक्र का नाश हो जाता है और परमात्मा की प्राप्ति होती है, अतएव 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ' के स्वरूप आदि को भली-भाँति विभागपूर्वक समझाने के लिये भगवान् कहते हैं-
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।3।।
वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है, और जिस कारण से जो हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन ।।3।।
What that Ksetra is and what it is like; and also what are its evolutes, again, whence is what, and also finally who that ksetrajna is and what is his glory hear all this from me in a nutshell. (3)
तत् = वह ; क्षेत्रम् = क्षेत्र ; यत् = जो है ; च =और ; याद्य्क् = जैसा है ; च = तथा ; यद्धिकारि = जिन विकारों वाला है ; च =और ; यत: = जिस करण से ; यत् = जो हुआ है ; च = तथा ; स: = वह (क्षेत्रज्ञ) ; च = भी ; य: = जो है (और) ; यत्प्रभाव: = जिस प्रभाववाला है ; तत् = वह सब ; समासेन = संक्षेप से ; मे = मेरे से ; श्रृणु = सुन ;