गीता 13:7

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गीता अध्याय-13 श्लोक-7 / Gita Chapter-13 Verse-7

प्रसंग-


इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारों का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे श्लोक में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है- उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का 'ज्ञान' के ही नाम से पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं-


अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह: ।।7।।



श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन –वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्त:करण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर निग्रह ।।7।।

Absence of pride, freedom from hypocrisy, non-vielence, forbearance, straightness of body, speech and mind, devout service of the preceptor, internal and external purity, steadfastness of mind and control of body, mind and the senses. (7)


अमानित्वम् = श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव ; अदभ्भित्वम् = दम्भाचरण का अभाव ; अहिंसा = प्राणी मात्र को किसी प्रकार भी न सताना (और) ; क्षान्ति: = क्षमाभाव (तथा) ; आर्जवम् = मन वाणी की सरलता ; आचार्योंपासनम् = श्रद्धा भक्ति सहित गुरु की सेवा ; शौचम् = बाहर भीतर की शुद्धि ; स्थैर्यम् = अन्त:करण की स्थिरता ; आत्माविनिग्रह: = मन और इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ;



अध्याय तेरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-13

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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