गीता 18:61

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गीता अध्याय-18 श्लोक-61 / Gita Chapter-18 Verse-61

प्रसंग-


पूर्व श्लोकों में कर्म करने में मनुष्य को स्वभाव के अधीन बतलाया गया; इस पर यह शंका हो सकती है कि प्रकृति या स्वभाव जड है, वह किसी को अपने वश में कैसे कर सकता है ? इसलिये भगवान् कहते हैं-


ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देश्ऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।61।।



हे अर्जुन[1] ! शरीर- रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ।।61।।

Arjuna, God abides in the heart of an creatures, causing them to revolve according to their karma by His illusive power, seated as those beings are in the vehicle of the body. (61)


अर्जुन = हे अर्जुन ; यन्त्रारूढानि = शरीररूप यन्त्र में आरूढ हुए ; सर्वभूतानि = संपूर्ण प्राणियों को ; ईश्र्वर: = अन्तर्यामी परमेश्र्वर ; मायया = अपनी मायासे (उनके कर्मों के अनुसार) ; भ्रामयन् = भ्रमाता हुआ ; सर्वभूतानाम् = सब भूतप्राणियों के ; ह्द्देशे = हृदय में ; तिष्ठति = स्थित है



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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