गीता 2:70: Difference between revisions
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स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ? < | स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ? [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> का यह चौथा प्रश्न परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के विषय में ही था; किंतु यह प्रश्न आचरण विषयक होने के कारण उसके उत्तर में [[श्लोक]] चौसठ से यहाँ तक किस प्रकार आचरण करने वाला मनुष्य शीघ्र स्थितप्रज्ञ बन सकता है, कौन नहीं बन सकता और जब मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाता है, उस समय उसकी कैसी स्थिति होती है- ये बातें बतलायी गयीं। अब उस चौथे प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञ पुरुष के आचरण का प्रकार बतलाते हैं- | ||
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जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले, समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ।।70।। | जैसे नाना नदियों के [[जल]] सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले, [[समुद्र]] में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ।।70।। | ||
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Latest revision as of 09:04, 4 January 2013
गीता अध्याय-2 श्लोक-70 / Gita Chapter-2 Verse-70
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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