गीता 18:31: Difference between revisions

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हे पार्थ<ref>पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी [[अर्जुन]] के सम्बोधन है।</ref> ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा [[धर्म]] और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ।।31।।  


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==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 05:48, 7 January 2013

गीता अध्याय-18 श्लोक-31 / Gita Chapter-18 Verse-31

प्रसंग-


अब राजसी बुद्धि के लक्षण बतलाते हैं-


यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ।।31।।



हे पार्थ[1] ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ।।31।।

The intellect by which man does not truly perceive what is religious and what is irreligious, what ought to be done and what should not be done, that intellect is passion (Rajasika). (31)


पार्थ = हे पार्थ ; यया = जिस बुद्धि के द्वारा (मनुष्य) ; धर्मम् = धर्म ; च = और ; अधर्मम् = अधर्मको ; च = तथा ; कार्यम् = कर्तव्य ; च = और ; अकार्यम् = अकर्तव्यको ; एव = भी ; अयथावत् = यथार्थ नहीं ; प्रजानाति = जानता है ; सा = वह ; बुद्धि: = बुद्धि ; राजसी = राजसी है ;



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।

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