अज्ञातवास: Difference between revisions

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;अज्ञातवास का अर्थ है बिना किसी के संज्ञान में आये किसी अपरिचित स्थान व अज्ञात स्थान में रहना।
;'अज्ञातवास' का अर्थ है- "बिना किसी के संज्ञान में आये किसी अपरिचित स्थान व अज्ञात स्थान में रहना।"
[[पांडव|पांडवों]] के वनवास में एक वर्ष का अज्ञातवास भी था जो उन्होंने [[विराट नगर]] में बिताया। विराट नगर में पांडव अपना नाम और पहचान छुपाकर रहे। इन्होंने राजा विराट के यहाँ सेवक बनकर एक वर्ष बिताया।
वनवास के बारहवें वर्ष के पूर्ण होने पर [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने अब अपने अज्ञातवास के लिये मत्स्य देश के [[विराट|राजा विराट]] के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और मत्स्य देश की ओर निकल पड़े। मार्ग में एक भयानक वन के भीतर एक श्मशान में उन्होंने अपने [[अस्त्र शस्त्र|अस्त्र-शस्त्रों]] को छुपाकर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा हड्डियों को रख दिया, जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने अपने छद्म नाम भी रख लिये, जो थे- 'जय', 'जयन्त', 'विजय', 'जयत्सेन' और 'जयद्वल'। किन्तु ये नाम केवल मार्ग के लिए थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने वाले थे।<ref name="aa">{{cite web |url= http://freegita.in/mahabharat5/|title=महाभारत कथा- भाग 5|accessmonthday=24 अगस्त |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=freegita |language= हिन्दी}}</ref>
==युधिष्ठिर==
{{tocright}}
[[युधिष्ठिर]] राजा विराट का मनोरंजन करने वाले [[कंक]] बने। जिसका अर्थ होता है यमराज का वाचक है। यमराज का ही दूसरा नाम धर्म है और वे ही युधिष्ठिर रूप में अवतीर्ण हुए थे।


==भीम==
राजा विराट के दरबार में पहुँचकर [[युधिष्ठिर]] ने कहा- “हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”
[[भीम (पांडव)|भीम]] [[बल्लव]] बने, बल्लव का अर्थ है सूपकर्त्ता अर्थात रसोइया। रसोई के काम में निपुण होने से उनका यह नाम यथार्थ ही है।
==अर्जुन==
इस प्रसंग में [[अर्जुन]] को षण्ढक और [[बृहन्नला]] कहा है। षण्ढक शब्द का अर्थ है नपुंसक। अर्जुन इस समय उर्वशी के शाप से नपुंसक हो गये थे।
==नकुल==
[[नकुल]] ने अपना नाम [[ग्रन्थिक]] बताया और अपने को अश्वों का अधिकारी कहा है। ग्रन्थिक का अर्थ है आयुर्वेद तथा अध्वर्यु विद्या सम्बन्धी ग्रन्थों को जानने वाला।
==सहदेव==
[[तन्तिपाल]] कहकर [[सहदेव]] ने गूढ़रूप से युधिष्ठिर को यह बताया कि मैं आपकी प्रत्येक आशा का पालन करूँगा।
==द्रौपदी==
[[द्रौपदी]] ने अपना नाम [[सैरन्ध्री]] बताया। 


{{प्रचार}}
विराट बोले- “कंक! तुम दर्शनीय पुरुष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें पाकर प्रसन्न हूँ। अत: तुम सम्मानपूर्वक यहाँ रहो।”
 
उसके बाद शेष [[पाण्डव]] राजा विराट के दरबार में पहुँचे और बोले- “हे राजाधिराज! हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे। पाण्डवों के वनवास हो जाने पर हम आपके दरबार में सेवा के लिये उपस्थित हुए हैं।"
 
राजा विराट के द्वारा परिचय पूछने पर सर्वप्रथम हाथ में करछी-कढ़ाई लिये हुए [[भीम (पांडव)|भीमसेन]] बोले- “महाराज! आपका कल्याण हो। मेरा नाम बल्लव है। मैं रसोई बनाने का कार्य उत्तम प्रकार से जानता हूँ। मैं महाराज युधिष्ठिर का रसोइया था।”
 
[[सहदेव]] ने कहा- “महाराज! मेरा नाम तन्तिपाल है। मैं गाय-बछड़ों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ और मैं महाराज युधिष्ठिर के गौशाला की देखभाल किया करता था।”
 
[[नकुल]] बोले- “हे मत्स्याधिपति! मेरा नाम ग्रन्थिक है। मैं अश्‍वविद्या में निपुण हूँ। राजा युधिष्ठिर के यहाँ मेरा काम उनके अश्‍वशाला की देखभाल करना था।”
 
महाराज विराट ने उन सभी को अपनी सेवा में रख लिया।<ref name="aa"/>
 
अन्त में [[उर्वशी]] के द्वारा दिये गए शापवश नपुंसक बने, हाथीदांत की चूड़ियाँ पहने तथा सिर पर चोटी गूँथे हुए [[अर्जुन]] बोले- “हे मत्स्यराज! मेरा नाम वृहन्नला है, मैं नृत्य-संगीत विद्या में निपुण हूँ। चूँकि मैं नपुंसक हूँ, इसलिए महाराज [[युधिष्ठिर]] ने मुझे अपने अन्तःपुर की कन्यायों को [[नृत्य कला|नृत्य]] और [[संगीत]] सिखाने के लिये नियुक्‍त किया था।”
 
वृहन्नला के नृत्य-संगीत के प्रदर्शन पर मुग्ध होकर, उसकी नपुंसकता की जाँच करवाने के पश्‍चात, महाराज विराट ने उसे अपनी पुत्री [[उत्तरा]] की नृत्य-संगीत की शिक्षा के लिये नियुक्‍त कर लिया।
 
इधर [[द्रौपदी]] [[विराट|राजा विराट]] की पत्‍नी [[सुदेष्णा]] के पास जाकर बोली- “महारानी! मेरा नाम सैरन्ध्री है। मैं पहले धर्मराज युधिष्ठिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी, किन्तु उनके वनवास चले जाने के कारण मैं कार्यमुक्‍त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई हूँ।”
 
सैरन्ध्री के रूप, गुण तथा सौन्दर्य से प्रभावित होकर महारानी सुदेष्णा ने उसे अपनी मुख्य दासी के रूप में नियुक्‍त कर लिया। इस प्रकार [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने मत्स्य देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्‍त होकर अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया।<ref name="aa"/>
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 05:12, 25 August 2015

'अज्ञातवास' का अर्थ है- "बिना किसी के संज्ञान में आये किसी अपरिचित स्थान व अज्ञात स्थान में रहना।"

वनवास के बारहवें वर्ष के पूर्ण होने पर पाण्डवों ने अब अपने अज्ञातवास के लिये मत्स्य देश के राजा विराट के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और मत्स्य देश की ओर निकल पड़े। मार्ग में एक भयानक वन के भीतर एक श्मशान में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को छुपाकर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा हड्डियों को रख दिया, जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने अपने छद्म नाम भी रख लिये, जो थे- 'जय', 'जयन्त', 'विजय', 'जयत्सेन' और 'जयद्वल'। किन्तु ये नाम केवल मार्ग के लिए थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने वाले थे।[1]

राजा विराट के दरबार में पहुँचकर युधिष्ठिर ने कहा- “हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”

विराट बोले- “कंक! तुम दर्शनीय पुरुष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें पाकर प्रसन्न हूँ। अत: तुम सम्मानपूर्वक यहाँ रहो।”

उसके बाद शेष पाण्डव राजा विराट के दरबार में पहुँचे और बोले- “हे राजाधिराज! हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे। पाण्डवों के वनवास हो जाने पर हम आपके दरबार में सेवा के लिये उपस्थित हुए हैं।"

राजा विराट के द्वारा परिचय पूछने पर सर्वप्रथम हाथ में करछी-कढ़ाई लिये हुए भीमसेन बोले- “महाराज! आपका कल्याण हो। मेरा नाम बल्लव है। मैं रसोई बनाने का कार्य उत्तम प्रकार से जानता हूँ। मैं महाराज युधिष्ठिर का रसोइया था।”

सहदेव ने कहा- “महाराज! मेरा नाम तन्तिपाल है। मैं गाय-बछड़ों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ और मैं महाराज युधिष्ठिर के गौशाला की देखभाल किया करता था।”

नकुल बोले- “हे मत्स्याधिपति! मेरा नाम ग्रन्थिक है। मैं अश्‍वविद्या में निपुण हूँ। राजा युधिष्ठिर के यहाँ मेरा काम उनके अश्‍वशाला की देखभाल करना था।”

महाराज विराट ने उन सभी को अपनी सेवा में रख लिया।[1]

अन्त में उर्वशी के द्वारा दिये गए शापवश नपुंसक बने, हाथीदांत की चूड़ियाँ पहने तथा सिर पर चोटी गूँथे हुए अर्जुन बोले- “हे मत्स्यराज! मेरा नाम वृहन्नला है, मैं नृत्य-संगीत विद्या में निपुण हूँ। चूँकि मैं नपुंसक हूँ, इसलिए महाराज युधिष्ठिर ने मुझे अपने अन्तःपुर की कन्यायों को नृत्य और संगीत सिखाने के लिये नियुक्‍त किया था।”

वृहन्नला के नृत्य-संगीत के प्रदर्शन पर मुग्ध होकर, उसकी नपुंसकता की जाँच करवाने के पश्‍चात, महाराज विराट ने उसे अपनी पुत्री उत्तरा की नृत्य-संगीत की शिक्षा के लिये नियुक्‍त कर लिया।

इधर द्रौपदी राजा विराट की पत्‍नी सुदेष्णा के पास जाकर बोली- “महारानी! मेरा नाम सैरन्ध्री है। मैं पहले धर्मराज युधिष्ठिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी, किन्तु उनके वनवास चले जाने के कारण मैं कार्यमुक्‍त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई हूँ।”

सैरन्ध्री के रूप, गुण तथा सौन्दर्य से प्रभावित होकर महारानी सुदेष्णा ने उसे अपनी मुख्य दासी के रूप में नियुक्‍त कर लिया। इस प्रकार पाण्डवों ने मत्स्य देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्‍त होकर अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत कथा- भाग 5 (हिन्दी) freegita। अभिगमन तिथि: 24 अगस्त, 2015।

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