गीता 2:45: Difference between revisions
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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पूर्व श्लोक में < | पूर्व [[श्लोक]] में [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> को यह बात कही गयी कि सब [[वेद]]<ref>'वेद' [[हिन्दू धर्म]] के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई।</ref> तीनों गुणों के कार्य का प्रतिपादन करने वाले हैं और तुम तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों में और उनके साधनों में आसक्ति रहित हो जाओ। अब उसके फलस्वरूप ब्रह्राज्ञान का महत्त्व बतलाते हैं- | ||
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हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं। इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों, आसक्ति हीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित योगक्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो ।।45।। | हे [[अर्जुन]] ! [[वेद]] उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं। इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों, आसक्ति हीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित योगक्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो ।।45।। | ||
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त्रैगुण्यविषया: = तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको विषय करनेवाले | त्रैगुण्यविषया: = तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको विषय करनेवाले अर्थात् प्रकाश करने वाले हैं (इसलिये तूं) ; निस्त्रैगुण्य: = असंसारी अर्थात् निष्कामी (और) ; निर्द्वन्द्व: = सुख दु:खादि द्वन्द्वोंसे रहित ; नित्यसत्वस्थ: = नित्य वस्तुमें स्थित (तथा) ; निर्योगश्रेम: = योग क्षेमको न चाहनेवाला (और) ; आत्मवान् = आत्मपरायण ; भव = हो ; | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
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==संबंधित लेख== | |||
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Latest revision as of 07:51, 7 November 2017
गीता अध्याय-2 श्लोक-45 / Gita Chapter-2 Verse-45
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख |
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