गीता 4:23: Difference between revisions

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पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं । वहाँ केवल अग्नि में हविका हवन करना ही यज्ञ है और उसके सम्पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्तव्य है; वही उसके लिये यज्ञ है और उसका पालन करने के लिये आवश्यक क्रियाओं का नि:स्वार्थ बुद्धि से लोकसंग्रहार्थ करना ही उस यज्ञ के लिये कर्म करना है- इसी भावको सुस्पष्ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोकों में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा की प्राप्ति के साधन रूप शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों का विभित्र यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं-  
पूर्व [[श्लोक]] में यह बात कही गयी कि [[यज्ञ]] के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल [[अग्नि]] में हविका हवन करना ही यज्ञ है और उसके सम्पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; [[वर्ण व्यवस्था|वर्ण]], आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्तव्य है; वही उसके लिये यज्ञ है और उसका पालन करने के लिये आवश्यक क्रियाओं का नि:स्वार्थ बुद्धि से लोकसंग्रहार्थ करना ही उस यज्ञ के लिये कर्म करना है- इसी भावको सुस्पष्ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोकों में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा की प्राप्ति के साधन रूप शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों का विभित्र यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं-  
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जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल [[यज्ञ]] सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं ।।23।।


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Latest revision as of 12:29, 4 January 2013

गीता अध्याय-4 श्लोक-23 / Gita Chapter-4 Verse-23

प्रसंग-


पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल अग्नि में हविका हवन करना ही यज्ञ है और उसके सम्पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्तव्य है; वही उसके लिये यज्ञ है और उसका पालन करने के लिये आवश्यक क्रियाओं का नि:स्वार्थ बुद्धि से लोकसंग्रहार्थ करना ही उस यज्ञ के लिये कर्म करना है- इसी भावको सुस्पष्ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोकों में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा की प्राप्ति के साधन रूप शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों का विभित्र यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं-


गतसग्ङस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।23।।




जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं ।।23।।


All his actions melts away, who is free from attachment, who has no identification with the body and does not claim it as his own, whose mind is established in the knowledge of self and who works merely for the sake of sacrifice.(23)


गतसग्डस्य = आसक्ति से रहित; ज्ञानावस्थितचेतस: = ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले; यज्ञाय = यज्ञ के लिये; आचरत: = आचरण करते हुए; मुक्तस्य = मुक्त पुरुष के; समग्रम् = संपूर्ण; प्रविलीयते =नष्ट हो जाते हैं



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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