गीता 18:51-52-53: Difference between revisions
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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पूर्व [[श्लोक]] में की हुई प्रस्तावना के अनुसार अब तीन श्लोकों में अंग-प्रत्यंगों के सहित ज्ञानयोग का वर्णन करते हैं- | |||
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विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्त:करण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यान योग के परायण रहने वाला ममता रहित और शान्ति युक्त पुरुष सच्चिदानन्द ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है ।।51,52,53।। | विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्त:करण और [[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यान योग के परायण रहने वाला ममता रहित और शान्ति युक्त पुरुष सच्चिदानन्द ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है ।।51,52,53।। | ||
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Revision as of 06:29, 7 January 2013
गीता अध्याय-18 श्लोक-51, 52, 53 / Gita Chapter-18 Verse-51, 52, 53
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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