गीता 4:6: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "<td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>" to "<td> {{गीता2}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td>")
m (Text replace - "{{गीता2}}" to "{{प्रचार}} {{गीता2}}")
Line 60: Line 60:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{प्रचार}}
{{गीता2}}
{{गीता2}}
</td>
</td>

Revision as of 05:55, 14 June 2011

गीता अध्याय-4 श्लोक-6/ Gita Chapter-4 Verse-6

प्रसंग-


इस प्रकार भगवान् के मुख से उनके जन्म का तत्त्व सुनने पर यह जिज्ञासा होती है कि आप किस-किस समय और किन-किन कारणों से इस प्रकार अवतार धारण करते हैं । इस पर भगवान् दो श्लोकों में अपने अवतार के अवसर, हेतु और उद्देश्य बतलाते हैं-


अजोऽपि सन्नव्ययात्मा
भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
संभवाम्यात्ममायया ।।6।।




मैं अजन्मा और अवनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ।।6।।


Though birthless and deathless, and the Lord of all beings, I manifest Myself through My own Yogamaya (divine potency), keeping My Nature (Prakrti)under control.(6)


अव्ययात्मा = (मैं)अविनाशी स्वरूप; अज: = अजन्मा; सन् = होने पर; अपि =भी (तथा); भूतानाम् = सब भूत−प्राणियों का; ईश्वर: = ईश्वर; सन् = होने पर; अपि = भी; स्वाम् = अपनी; प्रकृतिम् = प्रकृति को; अधिष्ठाय = आधीन करके; आत्ममायया = योगमाया से; संभवामि =प्रकट होता हूं



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)